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श्रादर्श-चरितमाला--- प्रथम पुष्य .
महाभारत ऊे भाणे
महामा कशं
अ्रकाशक ५ अनन्तरम श्रीवास्तव ९
श्र्यक्त--“मानस-पीयूष कार्याल दारागंज, अयाग।
८ प्रकाशक दवारा सर्वाधिकार सुरद्ित )
दितीय संस्करण] १६४४ [मूल्य २)
पकाशक . - ५सानस-पीयूष'" कायालय
दारागज, प्रयागः `
“ भद्रक आई० वी° सक्सेना माधो भ्रटिग वृं -लोशवादे।
भीः
दितीय संस्करण को भूमिका
| ५४१
सौ दिमपथया नित्र मावभेदप्, „ _ पृष पुयान् यभते तदनु प्रविष्टः | नेष नमो वुयोधं विर तत~ मार खे गतये प्रेश्वराय ॥&
पाध नारथी श्यामसुन्दर श्री नरनागर् नंदनेदन फे तनिक
मे मंकेते फो पर् क प्राणौ फमे-नक्र भ व्यस्त होकर निखार
धूम रद्र रर् पे वि्तादी यत्निक्ाक़ी श्रोट मंडे कहे
रटुद्र{ जो श्रपतेशनेस्यततय पत्रे पान करर शपते मे
त्र ट त्यश्ाश्रारोप कर् वष्र, बरे भोँति-भतिके दपं विष्यो मंपट्कर त्तरक्तगमें दरखी सुखी धते ्ै। हप शोक
यो श्रपनौ दिलं गति वल्लौ मायाके द्वारा दस षमार्स
राचर् पिप्य श्च रव कर एरस्मीमं पमानह्परते व्याप्त होकर
रुक विभाउन करते ई । ग्रथात् कम ग्रौर कर्मा केपरलोकरो
प्यम् प्रथ् कते है । ‡ उन पसेशर शीर्णा फो नमर करता
र जिनको श्राचिन्य लौहादौ इ संसारचक्र कौ गतिका प्रधान
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(२)
वशीभूत होकर भांति भांति की चिन्ताच्रों से चान्त चने रहते द । जिन्दोनि पना सम्पूरो अपनापन उन्दी के चरणां म अरित कर दिया दै, वे दे शोक से प्रथक् रद. क्र रनद , की तरह तटस्थ होकर इस क्रीड़ा का निरीचण करते हं । यदी दैव शरोर कमं, प्रारब्ध चनौर पुरुपा का रदस्य द । ये सव बतं हमे महापुरुपो के जीवन-चरः पटने से समम में श्राती है । महात्मा कणं का जीवन इसी ट्िकोण से लिखा गथा था। , मे हषे है फि जनता ने इस पुस्तक को अपनाया सात, आठ महीने म ही इसका प्रथम संतरण समाप हो गया। पिदधे लगभग एक साल से यह प्रथ छप्राप्य हो गया था, अव इसका यह् द्वितीय संस्करण पुनः प्रकाशित हो रहा है । अव दुधु कटने बाली वात्त तो है नहीं, किन्तु पुरुपार्थ न्नौर प्रारब्ध का विषय दूतना गंभीर है, कि इस पर चं जितना कह लो, चष जितना लिख लो यहे इसका स्वसम्मत निर्म॑य न होगा । इ लोग प्रार्थ को भ्रष्ठ मानते हे, ङु पुरुपा्थं को श्रौर यदं मतभेद सदा से ही वना रहा है, सदा ही वना रहेगा । भारतीय शाखकारों ने इस निषय पर अनेक भोति से विचार किया हे । एक कहानी सुनिये- . _ भगवान व्यासदेव के नाना एक मलाद् ये, जिनके धर उनकी माता सत्यवती जी पाली-पोसी गई थी । म निपाद राज मरने से बड़े उरते थे । एक दिनि धूमते फिरते, हरिगु गति, वीणा बजाते, जगत फो रिभाते देवष नारद जी उनके पास पच गये । निषादराज ने नारद्जी को णाम किया, पूजा की, आदर सत्कार के प्रवात अपनी मनोव्यथा सुनाई हा- पत जी, समे गरु से बहा इर लगता दै, कोई रेसी तरीव
(9
यनाघ्ये फि मे मरू नीं । ्राप तो चमराज के यदय नाया ही करत द| मेरी शिारिम कर देना कि यमे मारं नी । मारने फे लिये उलना ससार पटाद । युम श्रकेलेफो दयोड दमे, तो उना च्चा पिन् जायगा |
यदु सुन करनारद् जी मनद मनसे, श्रपनी हैसीको भीनर दी भीनर रोक कर वोत "देखो भया, यमराज से मरा उतना नेल जाल द नीं । वे बड़ी ख्खी तवियत के दै । मरी त्रान मानी न मानी। मे तुन्द एक तरकीव्र वताता हं सम्भार जो लगृफी के लङ्क द्र व्यास जी ये भगवान के श्रव- नारद, ये जिमदैवतासेजाकद द, बह उसे टाल नीं सक्ता । चदििये यमराजसे कदं तो वस्र फिर तुम सममो कि जर श्रमर टा गये । फिर मृत्यु तुम्हारे पास फटक भी नदीं सकना । परन्तु वे तुम से व्रहुत मना करे । तरद् तरह से सममधिगे । उनके भुलात्रे म मत श्राजाना इतना क कर श्रपनी ब्रीरा जल्दी से उठाकर नारद जी यह् गये वह गये। दी देरमंनौदो ग्यारह शौ गये।
कालान्तर भे उ्यास जी श्रपने नाना ॐ पास श्राये । कुशल दोम श्रादर सत्कार के श्रनंतर निपादराज ने वही बात कहना श्रारम्भ क्रिवा--धेदा मैने सुना है दुम्दारा बड़ा प्रभाव है।
` मव देवता बुम्दं बहुत मानते द । मेरा एक काम करोगे ?
व्यास जी ने फदा-दां, नाना जी ! एेसी कौन सी वातत है श्राप श्चाक्ना करे । मै उसे जरूर कं गा!
निपादराज वोले-देखो, पीठ श्रपने वचन से टक्ञ मत
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( £)
व्यास जी के कान खड़े हुए । पना नदी क्वा करदेन | क्रि मी उन्हँ त्रपनी साम्यं का भरोसा धा। बोलनी, काट चात्त नही है। श्रापजेोश्रज्ञाकरे वहीं क्सगा।
तव निपाद्राज वोले--ेखी, भया, मुभे.मृधयुस वदरा दर् लगता है तुम यमराज से जाकर मरी सिफारिश कर दा कि उन्दं मारने के क्तिये इतना वड़ा ससार पड़ा द एक युक दाद् दे । व्यास जी बड़ चकर में पड़ । उन्देनि भँ ति-भोनि स ठन वदे को समाया । चरनेक प्रकार के श्राख्यान सुनाच रोर यह् सिद्ध किया कि जिसने जन्म लिया है, उमे मरना वध्व पड़ेगा, इसे ब्रह्मा भी नहीं मिटा सक्ते । किन्तु निपाद तो वट गुरुके चेलाथा, उसेतो नारद जीने परिल दी सिखा पटा कर ठीक केर दिया था, न्यासजी की एक भी युत्ति उसके गते के नीचे नदीं उतरी। वद् वारवार यद कहता रहा देखो, जनम कमे भ तो मैने तुमसे एक काम करने को कटा । उसे भौ तुन टालमटोल करते दो । तुम यदि चाहो तो सव हौ सक्ता द । यमराज तुम्हारी वति नदीं मानेंगे क्या?
व्यासं ली घवड़ये च्च्य चकग मे षड़। नारद् जी का बया वीज देसा ही होता है ! ज्या करते, वात टालने को यो 4 च, (> ५ > ले--च्छी वात दै, मँ जाता हू यमरास् से जाकर छहटुगा ॥
„ उडढा भी वड़ा चालाक धा, दुनिया देख चुका था, व्यास ली फे हाव-भाव से समभ गया फि इख दालमें काला दे। वोला--अच्छा, स मी तुम्हारे साथ चलगा । व्यास जी तो त गथ थे वोले--“अच्छी वात दै, शाप भो चलो व नाना धेवते दोनो मिल कर यमराज ॐ समीप पहुचे ।
{ ५ )}
व्यानजीद्नादूर् सही श्रत्ि देखकर यमराज जीने र उन्न स्यागन् प्रिया । पिहासन पर विटाक्रर पूजा ्; 1 कूपतलदम कः छ्रनन्धर त्यास जीने निपादृराज क्रा परिः तदति द्रु कटा--्यमेरेनानाद्ै ये मरनेसे कहत उरते पर क्रया करके न्द दोडदें। इनको आप
नमसयम नं शध जोड कर कटा-- "भगवन् ! श्यापके नाना चरी नानाद्र! जवर श्राप इनकी सिफारिश करने श्ये - त मुम इसमें वा आपित्तिदो सकतीद। किन्तु मारने घ्रादि कान भने श्रषने प्क मंत्री भ्यृत्युः करे जिम्मेकररखा द 1 छप दव मश् । यह् स्वीकार करले, तो घड़ी प्रसन्नता न श्रनि =
य्यासनीक्रा पसा स्व्रागन-म्कार देखकर शरीर यसराज श ठन विरमति चयन मरकर, चुदहा मन दी सन प्रसन्न दो ग्माप्या दि प्रवने त्राजामार नी । वदे ने संकेतसे व्यास समश्य - "नथी चत्तो सिफारिश के लिये। अपने नाना चछा श्मभिध्राय सममकर व्यास जीने कदा "थोड़ा याप कण्ट करना खच्छानरो। अराति नौ भीनाध चल, छरवदासे तीन हृष् । तीनों र कायालय मं पटच । अपने स्वामी को व्यासे मरचान श श्राति देव कर मृ्यु दृड्वडा कर श्रते शासन से उठ शण | मतर अरभोचित्त पजा की। स्वारत सच्छार ओर छात तीम कर श्रनन्तर व्यापी ते अपना राग च्रलापना च्राग््भ प्रिा--श्चे मेरे नाना ह । सरने से बहुत दरते हँ । यमगाजजीते इन्दे क्षमाकरः द्याह आप भी इन परर चरपाःकरं ॥
( ६ )
हाथ जोड़कर सृ्ु ने कहा--भगवन् ! जव मेरे स्वामी धर्मराज ते इन्द त्मा कर दिया ह शरीर श्राप भराता न रह दै, तो यमे क्या श्रापत्ति हो सकती है ! परन्तु म जानता नही किसे मारना चादिये । यह काम 'कालदेव" के जिम्मे द। वे जिसके लिये कदे दं, उसी समय मै उसे मार कर कै त्राता हं । राप काल) से कट् दै । इनका लेखा मेरे साभने उपस्थित न करे । मै इतके पास भीन फटकरंगा। काल भगवान का कार्यालय कुदं दूर था । व्यास जीने कहा-शच्छा भैया, चलो तुम भी चलो। यह मंमृट पूरी तरह निवट जाना चाये / रव तीन से चार हुए । यमराज, मृद्ु, व्यास जी श्यादि को आते देख कर क्राल घवड़ा गये क्या मामला दै । श्रस्तु-पूजा, शत देम के च्रन- न्तर व्यास जीने संदेप मे सुनाया -धथे मेरे नानार, मरने से बहुत डरते है, यमराज, मृत्युदेव ने इन्द चमा कर दिया है श्रापभी दन परकरपा करे । सब से वक्षवान भगवान कालदेव वोले-श्रभो ! भँ तो आप सव का आज्ञाकारी हूं । मुभे क्या पता । किस की मृल्यु का समय है । यह काम वयमाताके जिस्मे ट| बे जिसकी जितनी अवस्था लिख देती है, उतनी होने पर ओँ मृल्यु को सूचना देता हं, वे उस व्यक्ति को पकड़ लाते हं। आप वय- माता से क् दँ उन्दोनि जो भी कु लिखा हो सुमे मन वताचें सदयुदेव से इनके सम्बन्ध मे वात भी न कर्मा । व्यास जी षवदा गये, अच्छ चक्र मे से । एक आदमी री श्रतु का परलोक भे इतना लम्बा चौड़ा हिसाव रदृता द व आज इसे सममे । वोते--भेया, चलो, दस मंद को भेर दो । उनसे भी इसे ते करा दो । अरय चार की जगह पोच इए ।
( ७)
, वयसि यमराज; व्यास देव, मृपयु, काल के सदित उस युद फो राते रेख फर द्र पडी । किन्तु इतने वड़े लोगों के सन्म हसना उचित नदीं । यही सोच कर धरपनी देसी को रोक फर उसमे सयका यथोचितं श्रादर सत्कार करिया । सव फी पूजा शी । त्यास जी का ध्यान पृज्ञाकी शरोर नदीं था। ञव या सव सिष्टानार हो गया तो बे वोले--भेरे ये नाना हं यमज. मृचयु श्रौर कालदेव ने इन्दं चमा कर पिया है । श्राप भी टना लेखा मैट देः जिससे ये मृत्यु के भय से धृट जाय 7
त्यास्न जी की त्रात सुनकर वयमाता ने कदा--'भगवन् ! जे वार् णक वार् धनु से दयूट गया वह् फिर लौट कर नदी श्रावा । वह तो ल्य को भद् कर ही समाघ्न होगा । मेस काम यष्ट, फ प्राणियों की मृत्यु के संयोग को लिखना। किस समय, किस स्थान पर. कहीं, किंस फे सामने, केसी दशा मे, सि की, कव मृलयु होगी यह मेँ लिख देती दू । वैसा संयोग जुट जाने पर काल मृत्यु को सूचना देते ह । त्व वे प्राणियों को प्रद् कर् यमराज कै सामने उपस्थित कर देते ह । जाननी थी किये भगवान उ्याक्त देव के नाना हौगे, मृत्यु से हूत रगे । इसलिये भनि इनकी मृत्युका एेसा असम्भव संयोग लिखा कि जोन श्राज तक कमी जुटा था, न रगे जुटने की सम्भावना दवी थी । ने सोचा - शमे खाना पूरी तो करनी दी बेनी । ठेसा संयोग लिख दो श्रि न कमी जुटे न इनकी शु हो । देखिये, मैने इनके शृच्यु के संयोग के कोष्टक मे स्या लिखा था, यद कद् कर वयमाता ने प्रपते घटी खाते को व्यास जी क सम्धुख रखा । ज्यास जी उसे पदे लगे--जिस् समय व्यास जी, यमराज, शृतयुदेव, काल ये सव एक साथ
८८)
मिल कर वयमाता के यदं वैठे होगे शरीर यह् निपादराज भी बरहा उपस्थित होगा, जव व्यास जी इसके खाते को पदृते होगे, तभी इसकी मूद्यु होगी ।' ६
व्यास जी पद् रहे थे, कि उनके नाना जी धड़ाम से नीचे गिर पड़ शरीर उनके राण पेरू को मृल्युदेव ने ऽपी जगह् पकड़कर यमराज के रधन कर दिया |
वयमाता व्डेजोर से दस पड़ी ओर वोली-भगवन् जीव करता है अपनी रक्ता का उपाय, किन्तु उस से रचा न होकर उलट बह संकट मेँ पड़ जाता है । यह् जान-वुमकरर अपनी मृत्यु को पने साथ बटोर लाया ।'
इस कहानी की सत्यता असत्यता पर विचार न कर । अपने नित्य प्रति के जीवन भर अनुभव करे कि हम जिस काम को करना नदीं चादते, उसे कोई शक्ति हम से विवशता पूर्वक करा लेती है जिसको हम करना चाहते है लाख प्रयत करने पर भी वह नहीं होता । जो काम होना होता बहुत साधारण से उप- करौ से दो जाता दै । जो नदीं होने को होता उसमे बड़ी से बड़ी शक्ति लगाते दहै, नहीं होने पाता । एक आदमी जन्य से दी खस्थ दै, निरोग है, घनी है, रेशर्यवान है। दूसरा पैदा होते ही नाना रोगों से मसत रहता है, समय प्र भोजन नदीं मिता किसी का सेह प्राप्त नदीं होता। एक ही कन्ता मे पटने वलि कात्र है, एक ही पद्ने का चिपय है, एक ही अध्या- पक है । उनम से वृहुत से सुनते दी समम जति है वहत से भ्रम करने पर सममत है । बहुत से पेसे भीहोते ै, कि लाख भयत्न करे पर भी उनकी समममे बात नही आती । एक ही पिता क्चार यु है । पिता ने समान रूप से शिच्चा-दीन्ता का भवन्ध किया है । उनमें से एक महान् विद्वान होता है, दूसरा
(६)
मद्मूरय, तीसरा व्यापारी श्रौग चौथा दुश्चरित । चार परमार्थं प्र क साधक् प्क दी गुम से दीक्ता लेकर साधना में प्रवृत्त हते द| एकता स्वल्पर्मलमे दी सिद्ध वन जाता है। दूसरा भोर तय, कठोरं त्रत उपवान करके वीसों वपं मे थोड़ी सिद्धि प्राप्न करना ह । शेष पसे दै, कि जिन्ह इस जन्म मे सिद्धि मिलती ही नदी । इन सत्र घातं का समाधान पूवे जन्म के सिद्धान्ते का मानने परन्प्रतः दीदी जातादह। जो ज्लोग प्रवं न्म को नीं माल कर उन प्रश्नो का जो उत्तर देते है, उनसे किमी सी विचारशील पुरप का सन्तोप नदीं हो सकता । पूवं जन्म की वान कवल गात्र कर प्रमाणोसरे दी सिद्ध नदीं है। शने प्रत्यदा उदाहरण इसपर श्रमी उसी कात मे भ्रिले ह ददती की पए लङ्क ते दनागें आ्दमियों के सामने सुरा में प्राकर प्रपते पूः जन्म वेः घर् का एक एकर, उ्यक्ति का प्रत्यक परिचय द्विया ¡ फेसी देसी गुप्त वातं वता, जिसे सुन कम् सभी च्रा्चयेचक्रित दौ ग्य ।
मरे बतं चमाचार पत्र मे प्रक हामि से सव जान गये कितु हमरे चदय गयो मे पे व्रटनाय' रोज ही दोनी रहती ह कोई छोटी वची वर्तते ही क्रिसी गोव कानाम तेते गती हे। घर का परिचय देती द । बहुत श्ाम्रह करने पर पिता बह ले जाना दर वह् ठीक वता देती है चभुक जगह मने इतने रूपये गाड़ भेखोदने पर उतने ही निकलते दँ । इस तरह एक नदीं अनेकः व्यक्ति पने पूर्व-लन्म ऋ वृत्तान्त वताते दँ । ज्योतिप- शाख से भी पूर्-जन्मों का फल्लाफल जानने की प्राचीन पद्धति थी चनौर की २ तो बह इतनी सत्य निकलती दहै, कि चाश्चय्ये लेता है { जिनके पास प्राचीन गगे संहिताये' है वे तीन जन्म कां दृन्तान्त वताते द । इस तरहपू ये-जन्मोँ के शुभाशुभ कमं
( ९ )
हमरे साथ गे रहते । उनसे ही प्रारब्ध का निवांण देता है । इसीलिये यह् वैषम्य दै । हम सव प्रारच्थ क ्राधीन हो कर कायकररैषै। दैव याप्रारच्य ही दमे नचा राद वदी हमै भटकारहादै। जैसादहोने कोरोतादै, वैसे दी संयोग जुट जाते ह, वैसे ही हमारी बुद्धिदो जाती श्रौर उसी भांति के कर्मा मे हमारी प्रवृत्ति होने लगती ह । प्रारब्ध फो कोद भट नदीं सक्ता, दैव की गति को को$ श्रन्यथा नही कर सकता। भाग्य को को बदलत नदीं सकता । इसलिये शाखर- कारों ते कटा है, यदि कोई काम तु्हारे चलुकरल होजाय नो, तुम विस्मय मत करो, कर यह अकस्मात करसे हो गवा श्रौर कोई प्रतिकूल हो जाय, तो शोक, चिन्ता मत करो, कि हाय ' यह कयो हो गया ! यह स्मरण रखो, को$ काम अकस्मात् चा सहसा नहीं होता, सव का विधान वना ह्या है । वीज जमीन ऊ भीतर दवा रहता दै, उसे कोई देलता नहीं द्रै। उसका परिणाम जव प्रकट होता है, छरंुर निकलता हे -तो दम यतुमान करते है, अरे, वश्य ही इसके नीचे वीज दोगा ! शाम षो जिस पेड़परः दम इच नही देखते, सुवह् उठते हौ हम उस पर फूल खिला देखकर चकित हो जत द । अरे, यद सहसा फूल कँ स
आया १ यह सदसा नहीं आया है| वहत पिले से वन
रहा था भीतर ही भीतर । जव परिणाम ग्यक्त हृ तो हमे , दीखने लगा ।
जव हम अरजामिल को पिले इतना तपस्वी मात-पितृ भक्त, सत्यवादी. देते है; शौर पीये बही वेश्याके संग से चोर सुरी शरोर लंपट हो जाता है, तो हम उसे धिक्ारते
अरे, उसने कैसा बुरा कास किया उसी की जव पुत्र के बहाने
( १)
से "नरायण कने पर संसार से शुक्ति दो जाती है, उसके समीप विष्णुपापैद् शरान फी वात सुनते है. तो हम इस पर स्सा विश्रास नीं कस्ते । करते भी दह तो मदान् राशये ्रकट फते द श्र. एसे पापी फो मुक्ति कैसे हद १ भिनदु नव हमे उसके पूवं जन्म का वृत्तान्त स्तात होता है कि यद पूवं जन्ममे छक वद्ाभारी तपसी था। पौपमाधकी सर्दी चह निरन् ्ररफफे जलमे खड़ा रहता था। एक समय प्त्यंत सरद से वद बेहोश हो गया । किसी बराह्मण ने शछ्चपनी युयती कन्या से कदय रेट, इसे शरपने शरीर श गरमी से येतन्य कसो ।' उस्र सथरितरा कन्या ने श्रपने बाहुपाशं मे लपेट कर् श्रपने दह की गरमी से उसे चैतन्य क्रिया । तपस्या से वदे { हृष श्नभिमान के कारण उसने विना सोचे सममे उस कन्या के गापदे उला-^्तृने मेराधमे ्रष्टकर दिया, जातू श्रगत्ते जन्म मे वेश्या दो जायगी ।' कृन्या फो भी क्रोध श्रा गया, उसने सोचा- हवन करते हाथ जलना द । मनि शुद्ध बुद्ध से दसरा उपकार किया | इसने विना सम सुमे शाप दे दिया । तथ उसने भी शाप दिया नूम दसरे जन्मभे निन्ध्रकम करने वाला होगा त्रौर मेर दी ऊपर श्ासक्त होकर तू श्नपना धमं कर्मं छोड़ देगा । प्रच्छ या बुरा कोई कमं निष्फल तो जाता नहीं । सवका फल , होता दै, भोगना पड़ता द । बह तपस्व ही अजामि इचा रौर बह कन्या ही वेश्या हुई जिसके पुत्र नारायण' के नाम तेने से श्रजाभिल की युक्ति हई । उतना दी पाप भोगना शेष धा उत्ते भोग कर पुख्य पाप से चूट कर वहं ुक्त हो गया । विन्वामिच जी को देखते है । पूवं, पश्चिस, उत्तर, दक्षिण चायो दिशाश्रो मे हाय वपं तपस्या की, वह मी केवल
(8)
रहि वनने के ल्थि। इतने पर भी वरी क्रोध शायव्रा. कीं अभिमान से तप सीए हशर, कदी च्रप्यराने वित्र दानी । दसके विरुद्ध ५ वपं करा धुव धर से निकलना द, मधुवन श्र मधुरा जी मे ६ महीने तप करता द, मंदं भगवान राक उम दशेन देते दै, उसकी सम्पू मनोकामना पूता र दते द तव हम त्राश्वयं करने लगते द । दमे वह पना नी, ध पूर जन्मभे इसने लाखो वपं पार् तपम्याकीशरी। बह क्रिसी महान ऋपिकापु्था) समन गजा व्रां यनद का गये । उनके साथ श्रत्येत युन्दूर् एनके गानह्धयार भीमरे! ऋपि पुत्र उनके स्वरूप को देख कर मुग्ध टौ गच, उनकी भी राजपुत्र होने की लालसा हई । वे ही श्राकर पुव ष् तपस्या तो वे पूवं जन्मो मे कर ही चुेभे ६ मर्दने की देर् ' धी, सो उसे अव पूरी करके भगवन्. साकतानंकार कर लिया । जिस॒ पुस्तक को हरम नाध पट कर मोजा दने दिन जो से चोड दै, वदी से पदृते द । यह नी कि निलय भ्रनि पहिले से दी त्ारम्भ करे। इतनी भूमिका के पश्चात्. प्राप शव करणं के पूव उन्म श्च वृत्तान्त सुन तीये । पद्वापुराण मे यद् कथा श्रा, फ पिते ब्र्याजी के ५सुखग्रे। चारों शसो चेता वरत्रा जी चारो वेदो का पाठ करते थे । गन्तु इस पंच मुख का तेज वड़ा सद्य था । देवता, गंवे, यक्त, राचास, समी इम पंचम- . यख के तेज से कोपने लगे । दरसके कारय कोई पितामह ॐ साभने भौ नह आसक्ता था । यह युस श्रतयं दूरं था। देवता ने शिष जी से प्रार्थना की । शिव जीतो भोलेनाथ ठदरे, उन्दने आव गिनान तावि ट से ्राकर अपने नख उस पचस शु करो काट क्लिया । काट तो लिया करिन्तु वह्
( १२)
सुख शिब जी के हाध म चिपट गया | त्रह्माजी को भी अपने पत्रसुद्रकी इस धृष्टता प्रर क्रोध आया। उनके मस्तक पर पसीना श्रा गया । उसे उंगली से पड करन्यों ही फेंका, कि उससे एक महा तेजस्वी व्यक्ति उत्पन्न हो गया । उसने हाथ जोड़ कर पितामह से पूष्ा-भें स्या करू † ब्ह्याजी तो रोपमे भरेदहीहृर थे] कह दिया-(तुम इन शिवजी को सार डालो । वह् व्यक्तिज्योंही शिवजी की श्रोर मपटा, किं शिव जी सुद्र बाँध कर वँ से भागे । बद् भी द्ोडने बाला नीं था । शिव जी के पील वह मी भगा।
शिवजीका एकदीच्राश्रय दहै, वे श्रीनारायण जी के समीप प्च श्रौर वोक्ते-“महाराज ! इस व्यक्तिसे मेरी रपा करो । भगवान नाराय ने अपते तेज से उस ब्रह्मा जी के व्यक्ति को जडवत् वना दिया ।
कथा वहत बड़ी है, सारांश यही है, कि फिर कपाल हाथ मेक्तिये शिव जीने श्री नारायण से भिक्ता मोगी । भगवान ने अपनी भुजा श्रागे कर के कहा इसमे त्रिशूल मारो । शिव- जीने वैसादी किया, उसमे से एक सुवणं वरं की धारा निकली, जो हजारो वपं तक शिव जी के कपाल मे गिरती रही । फिर शिव जी ते उसे मथन किया । उसमे से "नर' की उत्तपति हर । उस नर ने कहा--्ै क्या करू ¢ शिव जी मे कहा- श्रद्या जी के आदमी को पञ्ठाड दो ।' इतने मे दी भगवान ने उस मूर्त व्यक्ति को चैतन्य कर दिया । भगवान् ते उसे चैतन्य कथो कर दिया १ वस, भगवान के काममे क्यो का्रश्लही मतकरो) वेजोमी करते है, अपनी क्रीडा ऊ ये, यह् संसार उनका खिलौना दै । जैसे मौज आती दै खेलते ह । उनकी माया अनिवेचनीय दै, उनकी लीला अपार
( )
है; उसका कोद पार नहीं पा सकता । श्रविन्त्य शुक्ति भगवान विनोद क लिये ही ये सव पूवं तीलायें करते रहते दं । श्व न्द्याजी के प्राद्मी से शिवजी का नर लदुने गा. । शिवकेनरने व्रहमाजीके व्यक्तिको पदाद् दविया। तवता ऊुतूहल-प्रिय भगवान दौडे-दौडे त्रह्माजी के पास गवे शौर वो्े-श्रहमाजी । बुद्ध सुना ! तुम्दारे श्रादमी फो शिच जी के नर ने पच्चाड् द्या । र ति ्रह्या जी वड़े श्रप्रसन्न हुए ओर बोले--“मदारा, यह आपने वदी गढ़वद् कर दी। वाह् जी, मेरे श्रादमी को क्यो हरा दिया तव भगवान हसे श्रौर बोले - च्छ यात दै, अव के तुम्हारे आदमी कोजितादैगो। शिवजी के नरकोतो इन्द्रकोदे दियाश्रौर व्रद्माजीके आदमी को सूयय को दिया। वे ही जाकर दोनो वालि रीर सुभ्रीब हुए । तह्याजी का आदमी सप्रीव हुशरा श्रौर् शिवजी का हृ्ा वालि । अपने वरदान के अनुसार श्रौ रामहूप से भग- वान ने सुत्रीव के लिए घल से वालि को मार दिया । इस वात से इन्द्र डे नाराज हए, उन्दोनि भगवान से कहा-महाराज, यह् च्रापने क्या अन्याय क्रया । सूयं के पुज के लिए तपने मर पुत् को मरवा डाला भगवान ने उप्ता के साथ कहा-- अरे! क्या मरना जीना † श्रच्छी घात है, अरव के तुम्हारे पुर से सूथ्ये के पुत्र को मरवा दग ॥ भगवान के लिए मानो मरने-जीने, जय-बिजय का कोई महत्व दी नहीं । गीली चिकनी मिद्ध के सव खिलौने दै, जव क ह हाथी को बिगाड़ कर ॐ वना क्या, टको व कर घोड़ा बना दिया । वेदीकणं न्नौर अजुन इए । 4 व माता के गमे से उतपन्न हृए- 2 सूय्ये के द्वारा इन्द्र द्वारा । नारायण देव के दोनो खिलौने हीथे।
( ६५ )
दोनो फो लेकर मदाभारत युद्ध भे सेले। अर्जन ॐ हाथसे कणं की खत्युतो निधितदहीथो। यद्यपि कण ग्रज्ञनके हाथ सं मारे गये, किन्तु जोत कणं की ही हुई । क्योकि वे धर्मसे नहीं जते गये। श्चधमे सं उनका वध कराया गया । इसे श्राकाशत्राणी ने स्पष्ट कटा } श्रौर भगवान ने उसे सुनकर सिर नीचा कर लिया । यद्यपि श्रज्ञन कम वलवान नहीं थे, उनका भी पराक्रम मष्टान् ह्, उनका भी चरित्र अ्धितीय है । चिन्तु उनका बर्न पराक्रम परापेदधित था । उसके रथ पर श्यामसुन्दर न दते, पता वह जोत जाता इसमे सन्देह दी है । वैसे तो सभी के वलवे ही श्रीदयामघुन्दर दीद । कणे को भी बल देने वाजे बरे ही हैपरन्तु इम वात फो फणं पदिते दी सममते थे । श्रजुन ने तव समा जव उस्तके महान गांडीव धनुप को गोपो ने रास्ते भे लारियों से व्यं वना दिया श्रौर उनके देखते-देखते त्रियो को लेकर भाग गये । श्रजनसे दुध भी न वन पड़ा, वे ताकतते के ताक्रते रह गये । तव उन्होने समभा श्रे; यह तो सव श्रीकृष्ण का ही पराकम था । वस, इतना ही कणे रौर अजुन मे श्र॑तर है ।
महाभारत कदानियों का संग्रहमत्र ही नदीं है । वह सच- सुच प॑चस वेद् दै । श्रद्धा भक्ति सहित श्रथ को सममते हुए कोदै सचुच उसके तीन पाठ फरले, तो उसकी दिव्यदृष्टि हो जायगी इसमे तनिक भी संदेह नहीं । वह् ज्ञान का महान सागर है । उसमे कोई वात एेसी नदीं है, जो संदेष या विस्तार सेन कदी गई हो | यह यथ तो सहाभारत हयी अनन्त महा- सागरम से एक लोटा जल के समान दै। इसका यथां स्वारस्य तो महाभारत कै पारायण से दी श्रा सकता है ।
म्ारव्ध पुरुषां से ही निर्मित दै श्रौर प्रारन्धानुसार
( १६ )
ही पुरुपाथे होता ६ै। इन दोनो मे वीज श्रौर पृक्त कामा सम्बन्ध है । इसीलिये शालकारो ने प्रारब्थ च्रौर् पुम्पभरे को जीवनरूषी रथकेदो प्रहियि या परीशूपी पुरुप फे दो परंख. वताये ह । जैसे रथ एक पिये के विना नहीं चल सकता, जैसे पती एक पंख से श्रच्छी तरद नहीं उद् सकता, टी तरह पुरुपा्थं त्रौर प्रारब्ध दोनों फे विना जोचन का प्रवाद् नहीं वह् सकता । इ्लिये मनुप्य को बड़ माव्रधानी से, निगा- लस्य होकर अपने कतेग्य का, तत्परता के साथ पालन करते रहना चारिये । उसके फलक्रो प्रारच्ध के, दैव के, भगवान कर उपर छोड़ देना चाहिये । इमीकतिव भगवान ने कदा है (कमेस्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । तुम फल की चरर ष्टि रख कर काम मत कमो ।! दर्॑न्य
समस करते रहो। फल की इच्छा से काम करने वाक्ते को छपण कहते ह पणाः फल देत जो तुष्टे -माप् दोन बाला दोगा, बह् अवश्य माए होगा । इसलिये सोच, विस्मय को त्यागकर रृदृता से कसं दारते चलो श्रौ इग वरात दो नोँटमे वोधलोक्रिजोमेगाद, जिसपर सेरी दाप ल्मः ऋ दूसरे को त्रिकालमेमोक्माहादीनहौ मन्ता ` सग ह व 1 ५ १ ९ हो, सेरा मन-धुप इन मंसासी परप त म नुप द् मसार चं च ट कर सुदा सवदा व क ५ त र सत्त होकर पान करता का 0 श ज्ञार करता रहै। सदा
पुरणु-सूञ्न-मंडप मूस (याग) } सव का अकरिचन सेवक--
आशिन क० ११।२००२ धि० | भरभुदत्त व्रह्मचारी
भूमिका
यज्चिन्तितं तदिह दूर तरं प्रयाति । यच्चेतसाऽपिन कृतं तदिदाभ्युपेति ॥ प्रात्तभेवामि वसुधाधिप चक्रवती | सोऽह' व्रजामि चिपने जण तप ।
महापुरयां फे जीवन-चरिच्र हमे भिन्न-भिन्न तरह की शितां
देते है 1 कोई चरि तो हमे पुरुपा्थं का पाठ पदाता है.कोई धर्म की द्रट्ता भिखाता है, फो सत्य का महस, फोर ब्रह्मचय्य' का
{ गौरव, कोई दान का श्रे एत्व । हम प्रो का नाम सुनते दै,उनके गुं की श्रोर शिच जाते ह रौर उनके लिये मन मे एक प्रकार की धारणा स्थिर कर लेते दै । हरिश्चन्द्र का नाम अते दी हमें सत्य करा गौरव द्विखाई देने लगता है, महाराज शिवि की चचां धिडते ही च्रतिथि-सत्कार श्रौर धैय का गुरूत्व मालूम पड़ने लगता ह ! इसी प्रकार प्रत्येक के जीवन कै लिए यदी बात है । महात्मा कणं का जीवेन एक भाग्य का उपहास है । प्रारब्ध का प्रततिषिम्ब, भाग्य का चारु-चि्, पुरुपाथे के रागे देव का नत्र-नरृत्य देखना हो तो बह कणे के चरित्र मँ मिल सकता है । मबुप्य क्रितना भी छ्रुलीन हो, कितना भी शूरवीर हो, कितना
|
ॐ“
` £ जो सोचते ई, वह दयता नदीं । जिसकी मनम कयना भी नदी करते, वह सहसा हो जाता दै.। शीरामचन्दरजी कहते ह ५ प्रातःकाल चक्रवर्ती राजा होने बला था; सो अव चीर-क्कल-धारी तपश्वी होकर वन को जारहा द| (माग्यका पता नदींस्यासे क्याकरदे।)"
ख
भी दानी, त्यागी, विनम्रसत्यवारौ कर्यो न दो यदि भाग्य उम अ्रतिकरूल दै तो सव गुण उसके लिये प्रतिषूल दौ जाति, ६ ' संमवतया इसीतिये किसी संत के कवि ने यद् का है- माम्य फलति सैर न तु विशा न च पौषम्" । ध हम हिन्दुत्मो के शरीरम रामायण रौर मदामारत धराद धातु है । जिस प्रकार मलुष्यो के शरीर में ( रसः रक्तः माम्. मला, रस्थि, वीय श्रौर श्रोज) सात धातु द रीर ये जन्म लैत ही माताके दूध के साथ वदती रहनी द, उसी प्रकार रामायण. सहाभारत की कथाम को हम माताके दृध साध पीतिद। एेसादी फोईअभागा हिन्दु बालक दोगा जिसे रामायण महाभारत की चहुत सी कथये न याद् हौ । महाभारत तवा राभायश् के पत्रहमारे नित्यके परिचित पार वारिक पुरपो के समान बरन गये हं । हमे भरत.शबुत्रःलदमण के कार्या के साथ सहातुभृति दै । राबणसूपेणसाताई्का,मारी च,सुवाहु के कार्या से धृणा । शरी राम का चरित्र पद्ते-पदृतते हम रोने लगते दै । श्रीरामजी की शपथ दिलाने पर भी कैकेयी के उपर क्रोध हमे श्राी जाता है । पांडर्वो फे प्रत्येक कायक साथ हमारी सहातुभूति रै । हम उनके दुख मे दुखी श्रौर सुख म सुखी होते द । उनके उत्कप॑ को देखकर हमारा हृदय गदू-गद् हो जाता द्र । उनके पराभव. विपत्तिसे मारां हदय दूक-्ूक होने लगता दै} अपने आत्मीय वन्धु फी तरह वे अपने दं । इसके विपरीत दुर्योधन का नाम आते ही हमे उत्तजना रा जाती दै । हम उसके दुख म स'तोप मानते दै सकी विजय को पसन्द नक करते । उसका रेय्यः - हमारी आंखों मे खटकता है । आरंभ से ही हमारी सव के प्रति अलुङूल अति्रूल धारणाये' वन जाती ई । अपने वाल्यकाल भे मैने बहुतसी रामाय की कथाये सुन-
स्क ९,
१
ग
फर याद् करल्ती्थी। बहुत से दोरे.मोटे संनिप् महाभारत भी पट मे! उन सव्र फो पदक ससी सव कौ धारणा होती दै, मेरी भौ धारणा गद थी फिपांचों पांडव तो घमं क श्रवतार ह रौर दुर्योधन उसफे भाई, शनी, फणं ये बहुत सीव, धूतं मीर पभम के साक्तान् खरूप दर । बाल्य-काल मे दम गायाभी फते प-
दुख दये द्वास्का नाय शरण र तेर ।
दरे सव वातं से मेरे द्रदय में दसी धारणा दोग थी कि
दुर्योधन दुःतासन की माति कणं भी दष रौर अधमीं है । वह्
भी भगवान फेः विसुख श्रौर पायां का श्र है । किन्तु, जव मेनि श्रारंभ से महाभारन फो पदा, तव मेरे श्राश्चर्यं का ठिकाना नहीं रहा । जिन कणं क मँ टु सममता श्रा, उनका चरित्र तो महा- सारा से भी व्रर् द । लिनको ्रलुर दानव सममे चैटा था, बे तो देवनागो से भी चकर द ।जिन्हं मँ साधारण पात्र समता धा. वेतो मद्रामारत के प्राण निकरे । महाभारत के श्ण ्ात्मा ६, न्ती मूल-कृति ह, भीप्म महत्त्व द द्रोएाचाय श्दकार द, दुर्योधन मन है, उसकेयैकड भाई संकल्पःविकल्य हे, पचो पांडव पंच-महाभूत दै, दरौपदी बुद्धि । इन सवको जीवित "
“रखनेवात्ते करं प्राण ई! कणं के विना हम महाभारत कीकल्पना
भी नहीं कर सक्ते । शरी कृष्ण फो छो दीजिये, वे तो पात्र नरी. ह पार्नोके निर्माता दै! उनके बिना तो जगत ही नदीं । वे मन के मन, पराणो के परा शौर आमा ॐ भी आत्मा! उनकेरिये तो घु कहा ही नहीं जा सकता । उन होढ देने पर महाभारते
घं
कर ही कणं है । कणे के विना महाभारत की कल्पना भी नदा कर सकते । पे महान् चरित्वान, परम पराक्रमी, विनयी, शरी. एम, त्यागी, दानी जरर सवेाए-सम्प्न थे, कन्ठ भाग्य ते उनका साथ नहीं दिया । प्रारब्ध ने पग-पग पर उनका उपहास किया, माग्य ने उन्हं स्थान-स्थान् पर् धोखा दिया । वे देवपुत्र हेकर मी सूत-युत्र काये । वे राजवंश मे होकर भी स्थ होकने बाहे सारथी ॐ नास से प्रसिद्ध हुए । दे महान शूरवीर, परा. कमी होते पर मी अरधै-रथी बताये गये, वे विनयी होने पर भी धृष्ट चौर महात्मा होने पर भी दुष्ट कहलाये । यह् सव भाग्य का चकर ह । प्रारब्ध की विडंवना है ।
कृ की दानवीरता तो संसार भ विस्या है । लोग उन्हं दानीके ही नाम से जानते है, किन्तु दानी होने के साथवे कितने घरमात्मा, कितने महान थे, इसे महाभारत ॐ पदुने बलि ही जान सकते ह । उनका चरि विशुद्ध है, उनके गुण महान है । उने जद्रता दही, नीचत नरी, वे अपनी धुनि के पक्के है । ञे हरिकं प्रलोभनों मे फँंसकर अपने गौरव को खोने वाले नही । बे मानी, पराक्रमी, सत्य-परायण, माता, पिता, भावन " भित्र समी के विश्वासपा्श्रौर भक्त है । उनके गुणों की भरशंसा आनन्द-कन्द शरी कृष्णचन्द्रजी ने जितनी की दै उतनी दूसरा को कर ही नदीं सकता । भगवान ने तो ययँ तक क दियादै "कणं को मँ स्वय भी नदीं जीत सकता इससे बद् कर श्रौर उस महापुरुष ज्ये कौन सी गौरव की वात हो सकती है { यह ` हानि-लाम, जीवन-मरण, यश-अपयश तो विधि के हाथ है । दैव जिसे यह् दे । इतना सव होने पर मी कणं का संसार में
भी तक गौरवःहै । भाग्यं विपरीत होने पर भी लोगों ३ हृदय मे उनके परति श्रद्धा तथो गौरवं है 1 : ` ` ` +
१
य र प्प भरत, शत्रून युधिष्ठिरः प्रजन, सहदेव रखते ह फिन्तु रावण, दुन्भकरण, दुर्मन, दासन कोई नदीं रखता । द्रौपदी नामकी
५५
नरका -बह्न एनी, मिन सूपणखा तो गाली सममी जाती
एम देवयते द पने अथं फा नाय सवर जोग राम, लतत्मण
हु । परन्तु फण फे लिय य बात नदीं | चननियो मे कर्ससिह नीमव्रद गोग्वस रस्बाजाना दर! उत्तर भारतम कर्ण के नाम
से प्न ननद श्रौर यावद । कनपुर् का श्रसन्ली नाम कणं पुर्हीष्) कषटतेष्र नशाराज कणं यहो सहते धर । बुलंदशहर जिते में रागा किनारे फरावासर नामकाप्ठ तीर द । कहते टवा कणादेवी जाकी प्राराधना करते थे | उनके जमानेके श्रिला-लेख मी व्रताय जति द्रं | उत्तराखंड मे पंच.प्रयाग प्रनिद्ध द| उनमें एक कमयरयान भी है । बह भगवती श्रल- फनेदा ने कण-॑गा प्राकर मिनी द| करते है कसं ने यहा तपस्तराकौ थी। कमम च्रौर् श्रल्कनंद्र के संगममे कणं कुड धसिद्ध षर इस अकार् उन विमल कीर्तिं त्रव तक है श्रौर जव तक नकर पिना सूय संसार मै रहुगे, तवतक उनकी कीर्तिं इती तर् बनी रहनी । महाभारत मे त नदीं, संहिता से यह कथा द फिजव महभिारतके चन मँ वेय बदल कर श्रीकृष्ण श्रजुन सहित कर्ण शरी दरान-बीरला की परीक्ता करते गये तो कणं ने सृत प्राय दने पर् भी पने दति मे लगे सुवणं को पत्थर मारकर निक्राला श्रौर् बाह्म व्रेपधारी श्रीषष्ण को दे दिया} इस पर भगवान वहत प्रसन्न हुए श्रौर करं से वरदान सँगने को कहा। करस ने कहा (प्रमो ! आपी मेरे शगीर का दाह करे त्रीर रेसी जगह करे ज्यौ माज तक्र कोई दहन किया गयादहो।" भगवान समसत भूमंडल पर धूमे । देसी जगह प्रथ्वी पर् कहाँ है जद श्राज तक कोई जलाया न गया हो । तवे भगवान् ने अपनी
<
॥४\।
हेली पर रथ कर कणं के शरीर को जल्ला । दीलिये भरतः उत्ते ही दोनों हथेलियों को मलने से तवर तक मुरदे कौ गंध चात दै । इससे करसं की भक्ति श्रीर रत्यु दोनो का म्भरण बना रहता है । इत प्रकार भगवान् के साथ महात्मा करण मा प्राणीमात्र क प्रातः स्मरणीय वन गये हें । 0
मैने इस पुस्तक भे श्रपनी ओर से बनाकर छं मी नरी लिखा है । महाभारत मे जोँ-जरँ कणं का उल्लेख दं, उन्दी प्रकरणो को शरपनी भापा मं जिल दिया है। उपर जो एलेक्र दिये गये है, वे भी लगमग सव महाभारत के ही ह । महाभा- रत ल्प बड़े गननेके रसकोषएछ छोटेसे बर्तनमे रल दिया है । यदी साहस मैने किया है । जध्र-जव महाभारत को मेँ पदता, तभी सुभे कणं का चरित्र लिखते का संकल्प उठता । पूव जन्म के दुष्छृतो के कारण भगवत्-स्मृति, भगवत्-धितन, मगवत्-ध्यान तो होता नही । तिसपर भौ मान-्रतिष्ठा के लिये बहुत से कार्या म मन लगा रहता है । कित काम के करनेसे सू नाम होगा, किस काम से जनता में मान प्रतिष्ठ वदेग, यह सुदम वासना सदा वनी रहती है । इसी वासना की पूर्तिं के लिये परोपकार चौर परमाथे की आद् मे वहत से कार्यो मे शरीर शरोर मन को फसाये रखना पडता है । इसलिये वहुत सी वाते लिखना "भी चाहते है, तो क्ति नदीं सक्ते । लिखने मभीदो देतु है । परसिद्ध शनौर मतिष्ठा की मावना तो है ही, साथ दी जब धूम-धद़ाके का कोई काम नहीं रहता तो मन को बहलानेके लिये, समय काटने केलिये कु लिने की सूकती है ।
पारसा गमियो भ श्री वदरीनाथ जाने के पूव लगभग महीने भर मंसूरी के समीप सहखधारा पर रहनाहु्रा । वडा दी शात, एकान्त ओर सवासथपरद् स्थान दै । गंथक के जल का एक
ष
मनोत दै, प्राड् से व फ तरह सहस्र धाराये प्नविन््िन रूप सं गिरती रषती द! वद् स्थान मुमे बहुत ही पसन्द । नैपाल के महाराजः कुमार् नरेन्द्र शमसेर राणा तथा उनकी धमंपत्नी रानी राजपरती ने मेरे कने से वह एक घोटासा वं गलत श्रपने रहने के लिये वनवा जिया द । वे ज्तोग सो बदँ कभी रहते नक्ष, लाली ही पदा रहता द । श्रतः मै कभी-कभी उसी भ जाकर महीने दो सषीने ठर जाता टँ । उसी शात एकान्त स्थान मे मनि इस कणं- चरित्रेफोलिखा। दो वषं सेयह श्रप्रकाशित ही पड़ा था) श्रव परम प्रिय श्री श्ननन्तराम श्रीवास्तव ने कहा किर्मे इसे द्ार्पेगा । इन्दी फेऽयोगसे इस कागज की ँहगाई भे, यह पुस्तक सन्दर कागज श्रौर सुन्दर छपाई ॐ साध निकल सकी । यह श्री श्रनन्तराम जी के उत्साह श्रौर पुरुपाथं का ही फल है ! श्राग्ा द, पाठक इस नवयुवक वालक के उत्साह को वदृ्वगे ।
भगवान हमे शक्ति दे, हम महात्मा कसक गुणे का च्रदुसरण कर सके रार दस नश्वर शरीरे का मोह छोडकर श्रविनाशी श्रीकरष्टा की भक्ति शी श्रोर वदे श्रीकृष्ण भक्ति दी जीवन का परम ल्य दै, यद्गी परम पुरुषाय है, यही स्वशरष्ठ कतेव्य है, यदी प्रासीमान्न का ध्येय है | श्रीकृष्ण हमे श्रपने पाद-पद्मो की भक्ति प्रदान कर, यही उनके पुनीत पादपद्म मँ पुनः पुनः पाथना है ।
प्रार्मिन का सेवक वनने का इच्छुक-- त्रखंड संकातिन यन्न
भूरी ( प्रयाग )
फल्मुन कृष्ण १२ संवत २०१०
श्रीहरि $ महाभारत के भाण
महात्मा कणं
कमङ्गलाचररश्च व शीविमूशित करान्नवनीरदाभात् । पीताम्बरादरुएविम्ब फला धरोष्ठात् पे नदुखन्दर-एुखादरविन्दनेत्रात् । कृष्णात् पर' किमपि तत्वमहं न जाने ॥9
हे प्रभो ! तुम्हारे पाद पंकजों मे रणाम है। हे भरन्तयामिन् । मँ पके श्री चरणों मे नत्-मस्तक होकर श्रभिवादन करता ह| स्वामिन् ! यद जीव श्रल्यज्ञ है, श्राप सवज हैँ । सर्च॑ज्ञ होकर मी मेरे स्वामी ! आप कमी-कमी अल्यज्ञो की श्र शी में चाकर हम मति-
शरजिनका श्री दस्त वंशी से सुशोभित है नूतन मेध के समान जिनकी श्रामा दै, जो पीला षस धारण किये, विम्बाफल के घमान जिनके लाल ओष्ठ है, शरद के पशं चन्द के समान जिनका भीगरख ई श्रौर कमलं के समान सुन्दर सलोने वदे विकसित जिनके नेत है, उन शीकृभ्ण से परे मेँ ग्रौर को$ तत्व नदी जानता ।
भ् महाभारत के प्राण महासि। कशं
मंदो की ही तरह क्रीडा करने लगते हं । श्रापकी कीड़ा किसी सां के लिये महीं ्येती । प्रा तो वदी करना चादेगा, जिसे कोद चीज श्रप्रप हो । है श्रखिल व्रह्माड के विधायक्र | ्रापतो आप्त काम है, आपका फिर खाथै हीक्या ! श्राप च्रपते परानन्द के तिये छ करते हँ; यह् कहना भी नी वनता ] जिस णक काय मे क्लेश हो वह ऽसे भुता श्रौर उससे च्रधिक श्न्छ कायं को सुख क किये, आनन्द् ॐ लिये करता दै, नु शापो भीतर-वाहिर स वत्र ्रनन्द् के रूप ही दं} श्राप यह मानवीय कडा क्यो करते हं ! यह् क्ये का प्रदी हमारी स्थं परता दै । हमारी दद्धि का ढचा दी आपने रे वनाद्वा है कि हम श्यो शरोर कैसे' के विन। फोई काचः करना चाहते ही नही । हम तुह भी अपनी ही श्रणौ मे विटाकर वति करते हं । यदी हमारी भल है । दे मेरे खामी ! आपके लिये कोट कतव्य नदीं! आप भिधिनिपेध से परे हं । आपका निःश्वास दी शाख ह। पकी इच्छा द सृष्टि है । ्रापकरा अवलोकन दही पालन षै । आपका नेन्मीलनं दही परलय है । श्राय भन ज्ञान हैन भहानः, आप आपी दै; आपकी क्रिया का कोई कृथन नहीं कर ध । अपक सत्ता है" यह् कहना भौ भ्रहञान दै; 'आप नहीं < र् कथन भी ता से सालो नहीं दै (आप चैतन्य हयद् कना आपकी ह् सौ उदाना है, :
{ ० ५५४
अपि अचतन्य जड्-स्थावर हैः थद् भी आपके बिपय भ नदी" वनता; फिर भी शरतियो आपकां सचिदानन्द नाम से निर्देश करी है! यह् केव निर्देशमान् ही
भते कते ह ते ओ वती देते दवे मोह को रथात
आर् आपके प्रत्येक कमः की श्ाजोचना-मत्यालोचना करते है;
प्रदान कुर दिया है, वेतो एकान्त
मंगत्ताचरम् ३
यन यिना नर्दित विवि धापफी उम श्लुपम क्रीदा फो देख- 7 मागर् म निरनर इुबकिर्या लगाते रहते द्र । गजा येष प्रदुलकंरे साधारण श्रादमियों मे जाकर पेष से तेदाट-मगदा रना ह तो उसके श्रसली खर्पको पनतिवयनि म द्विया फो देवकर मेषी मन भुस्कराते रहते । मत सदने ग्रा तैर पमन प्रयोजन नरी । वदो वह श्रपते साधा- म्पमोधर-प्दा नी सयु रदा द| उसका विनोद मध्रिह | इसी तओ मायामोियरजाद श्वयको सोधारणलजीच-कोटि मे लाकर
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म व्यापद कामा ननद्रीय परास् पर तले ह, वरे श्रापकी गुण- मर जाया धाद स शादय ४1 उन्दु श्रापकं सेल सखल्पका
छान न्ध | श्वाप नो मनन्त सीवेमिनूतरेमेरिगिणा दवः मोती की [तिषवदं है, प्राखिर् श्रापका संसारम स्तेकाटेतुक्याह 1 फिर बही पागल-
्रशीभृन पकर? नदी! नदीः श्रापके लिये क्या कतेन्य.स्या श्क- नत्व अभी श्रापमेः लिये सान द । तथापि दन ्रनेतजन्मों से मायापाया मे करे हुए जीवो को मुख द; श्रापकी शरोर यदृ से श्रापकी लक्िन ठीलाशचां के वेण स उनकी चिन्त की वृत्तियां श्राप श्चोर लय सः इसलिये श्रापकी क्रीडा ससार कै सुख के लिये, जीवों के उपकार के लिये, जन्म-मरण कं पाश फो छदन करने फे लिये होती द । ६ मधुसदन् } त्रापके गुण श्रवण करन म मन लगे टे प्रमो ! श्रापकी लीलाच्रो मे सानवीय् टृषिन हनो} ह नाथ ! श्रापदी समृति द्दय पटलपर सदा वनी रदे । यही दै] प्रापकी तील्ला मे हमे षिरोधा-
श्मापके श्रीचरणा म प्राध्रना| भास दीखता दै । कदी श्राप पने भक्तो को प्रपते हाथो से कट-
् महाभारत के प्राण महात्मा कणं
वाति है, कदी उनकी र्ता करते द । कीं यख देकर् भक्त ो वचाति द,कदीं धोखा दिलवाकर न्दं मरवाते है । श्रापके लिये ने फोर अपना है, न पराया । ्रापके भक्त श्रनेक प्रकार के द । महाभारत म आपके श्नेक प्रकार के भक्तं । कोट श्रापकी पूजा करता द, को श्राप पर प्रहार करता है । ्राप दोनों परदी छपा करते है । करीं कहीं तो पेसा देखा गया है करि पूजा करने घाते की अपेचा प्रहार करने वाले के प्रति श्रापका प्रेम ॒श्रत्य- धिक होता है। महामना सहात्मा कणं भी श्रापके श्तुपम भक्त थे । इस मंदमति लेखक ने तो पूरे महामारत मे एक करसं को दी एेसा पाया जो निर्दोष शौर ्रापका सचा भक्तथा । वैसे सभी आपके से दी क्तद। किन्तु मेरे हदय पर तो दानवीर कं ने श्रपनी छाप वैठा दी । हे (जगदीश्वर ! ओँ उन्दी आपे भक्तसदहावीर कणं की यतक्रिचित गुखावती का सग्रह करना चाहता हू ।
परमो! आप करान तोमी अच्छानकरा्मो सो भीच्रच्छा। अच्छा प्रामः प्रणाम, प्राम ! मेरे मालिक श्रन॑त प्रणम !
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ध्यास-वंदना
नमोऽसते व्यासविशालघुद्ध, १तल्लारविन्दायतपत्नेत्र । येन त्वया भारत तैलपूरः प्रघवितो भरानमयः प्रदीपः || जव किंसी वस्तु का हाप होने लगता है श्रौर सटुष्य उस मदान् वस्तु की उपयोगिता के चिपय भें किकतेन्य विमूढ हो जाते द, तो उस ससय उसे सरल, स क्तप्र सर्वोपयोगी बनाने ॐ लिए जो श्रते द वे मगवत्-विभूति कलत दै । उनके अनेक भेद द--श्रवतार, अर॑शावतार,कलावतार। प्रकृति स्वभावतः अधो , गामिनी है । वह स्वभावतः शनैः-शन नीचे की दी श्रोर खिस्कती ` । जाती है । जिस प्रकार बह शनैः शनेः नीचे की ही शरोर जाती है उसी प्रकार वह खतः करमशः उपर को नदीं उठ सकती ! कोई भवल शक्ति उसे एक साथ उठा कर ञंवि चदा देती है। इसीलिये तो घोरकलियुग क वाद् एक साथ ही शुद्ध सतोगुणी सत्ययुग आ जाता है । सत्ययुग से क्ियुग श्राने भ तो बहत देर लगती है, कर्योक्रिं पतन की श्रोर तो बह स्वभावसे दीजारहीहै। जैसे पाड से समुद्र की शरोर ढाल. होने के कारण पानी स्वतः ही बहता जाता है, किन्तु सयुर से पदाड़ पर॒ रसे फिर पहु चाने के लिये बादल उसे वहत ऊपर उडाकर लेजाते ह नौर एक ¶साथ हीक्ञे जाकर वर्षा देते है । प्रकृति ऊ नियम अटल है । ` कमलनयन मगवान् वघुदेव ! आपने शरपनी श्रतौिक मेषा से परमध्नग्धता युक्त इस महान क्ञान-पूरं मणमय दीपक को जलाकर स्व के हृदथ-द्रंधकार को दूर कर दिया दै, अरत त्रापके चरणो मे बार-बार प्रणम ! ब्
५ ६ महाभारत के प्राण महात्मा कण
छट की खल्ल अनादि दै । कम बन्धन सनातन दे । दू कर प्रभाव सद् है । सष्टि का -सखरूप दी जोडा हे । अदत मं छट कहाँ ! सृष्टि के लिये तो एक से दो होने की इच्छा आधि- श्यक ह । इस रहस्य को सृष्टि के आदि में लोक प्रजापति त्ल भी भूल जति है तरौर जव एकाकी मलुप्यों दारा सष ृद्धिन देख कर सयः दी घवराने लगते हं, तव उनके तःकरण मे भ्रमु प्रेरणा होती हे च्नोर अपने देह केदो भाग करके जोडा बनाते है, तभी सि कम यये रूप से वदते लगता हे । धम् त्रधमः, पापयुस्य, सुख-दुख, जीवन-मरण, सत्य-अदत) इन्दा सबका नाम द्वद है । यदी ससार है । जव प्रभु को धम की द्धि करनी होती है तो अपनी विभूति को, अपने तेज को यन्तः -राक्तस ओर श्रु मे निदित करते दै; उनके वल्के बदा देते है । उस तेज को पाकर बे नाना ति के उपद्र करने लगते ह । साधु को क्तेश देते दै, अधमं की दृद्धि होने लगती हे त स्वय ही उस अधम को कम करने की इच्छा से, साधुर की रक्ता करने की भावना से, धम को बढाने के नि।मत्त सत्व मधान रूपसे अवतीणे होते द ओर धम की मयादा को स्थापित करते है । उनको इच्छा के बिना न अधम होसकता दहे, न चम । धमं रधम दोनो के ही वे नियामक ह । दोनों ही उनके शरीर के, छग ह, एक आगे का उज्वल अंग है, दूसरा पृष्ठ भाग कापा श्चंग है.। न धमः का कमी अत्यन्ताभाव होता है न.अधमं का । सल्युग कै पश्चात् तरेता का आना अनिवार है ता का शत द्यापर है ओर द्वापर- समाप्न होने पर कलियुग आबेगा ही । इन सव मे धमे की मयादा को ` बनाये रखते के भगवान नाना रूपो मे अवतार धारणं करके है । ' यह् प्ासी अधमे मे धमे मानता है, तभी तो पतन.की रोर सखतः'
श्चासि वंदना
1 जास्हा दै) यद्रि धरं अधम का उस यथाथ ज्ञानं राजाच वरह इम आवागमन ऊ चक्कर से सदा के शिवि मुत री दौ जाच । विभूतिमान पुरुप धरम का यथाथ रूप वताते ह, यूनो क श्रलुखूम वे धमाधम का निशेयं करते द श्र धारिय पं एक नियमित मर्यादा मे चलने के लिये प्रेरित करते दे ¡ ्यतार् प्रायः युगो की संधि मे होते ह, या यो किये-- जवर चिरोप परिवतन की श्रावश्यकता होती है तव विशिष्ट विभति उखन्न होती दै | वेद की ऋचा अनंत । वेद् की क् पुस्तक नी, उसकी कोई संख्या नदी, कमेकांड महाम् है । ज्ानकांड रथाद समुद्र । शाख असंख्य द! विया पारावार नहीं । विना क्ञान के सुक्ति नहीं है, फिर जीरो का कैसे कल्याण दौ १ कर्िकाल में जीवों की आयु अत्य दै। बुद्धि जञद्र है} इसीक्तिये भगवान प्रत्येक द्वापर के अन्त म व्यास रूप से प्रकट दते ह । बे वेदों की मयादा स्थापित करते टै उनका श्रत्यन्त संचिष्र सार संग्रह करते ह । शासो आ सरूप स्थापित ऋरते ष । पुरायों का संकलन करते हे । इतिहास को करमवद्ध बनाते ह शौर लोगो के इख के लिये मगवान के चरित्र का गान करते ६ । । अगवान के चरि श्रचिन्त्य है । उनका गान मानवीय बुद्धि कर ही नदी सकती। अतः स्वयं दी मगवान ऋपिरूपम सेश्रपनी लीला का प्राकण्य अपने आप ही करते दै, जिससे दुःख ^ सोक मे षदे हुए जीव उन चरित्र कोगागाकर इस अपार भवसागर से सुगमता क साथ पार हो जायं । इति मत्य - शील सुर्यो का कमी नदीं होता । जिनके द्वारा मगवत् लीला का स्मरण दहो, वे ही इतिहास के यथाथ पाच्रहै। बास्तवमें तो इतिहास के एकमात्र पात्र वे श्रीहरि ही दै) वे ही नाना सपो मे
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४.
त महामारत के प्राण महात्मा कणं
क्रीड़ा कर रहे दं । सव पात्र उनकी श्राज्ञा से उनका रुख देखकर अभिनय करते ह । चक्रवती जव एकान्त भें श्रपने श्रतुयायी श्नुचरो के लाथ मनोचिनेोद् क लिये सुखकर कीड़ा करता द तो अपने अनुचरो मे सेक्सी को राजा वना देना दै, किसी को पुरुपसे खीका वेष बना देता द #स्वय' सिपाही वन जाता दै, राजा के सामने हाथ वाँधे खड़ा रहता है; किन्तु सभी पात्र सममते ह छि यह् सव चक्रवती की इच्छा से उसके धिनोद ऊ लिये होरहाहै। वह् जिस क्षण चाष्ट तत्काल सेल समाप्न कर सकता है । इसीलिये इतिहास का यथार्थं अरं है भगवन् लीला का घंस्मरण । भगवान व्यास ने यदी इतिद्रास का अथे किया है “्रादावन्ते च मध्ये च हरिः सवत्र गीयते ।
इस युग म भगवान वादरायणव्यास रूपसे अवतरित हुए । प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र मगवान वरिष्ठ हुए । वशिष्ठली के सकद पुज हए क्योकि वे परजानन ॐ पति गरे । उनके एक पुत्र मदि शकत. हुए । शक्ति के पुज महिं पराशर हए । पराशर के यदो दी कमारी सत्यवती के गभ से भगवान वेदव्यास कृष्ण- दवाय का जन्म हुा । जिन्होनि एक वेद् के चार भाग क्रिये । ऽका संकलन, संपादन शरोर संशोधन किया। पुराणों फो संदिघ् करके उन १८ मागो मे विभाजित किया । समस्त शाखं का स्वरूप भरकट किया ओर सचसे वड़ा कार्यः यह् किया कि वेदोका सार पराव भाषा मेँ मारत या महाभारत के नाम से वनाया । महाभारत को पंचम बेद कहते है । भगवान वेदव्यास मे सनुष्य , नाज पर छपा करके ही इस अनुपम ज्ञान दीप फो भ्रज्चलित किया । वेदो का अधिकार सी, शूदर तथा वणौश्रम से इतर पुरषो को नही है, या यों किये इन पुरो मेडसे धारण करने की पामता नही । कलिकाल ङ जो नाममा के द्विजाति.द्िज-
व्यास वंदना ६
वन्धु हं वे भी वेदाध्ययन भे श्रसमरथं है।उन पर करुणा करके भगवान ने वेदों के सार को महाभारत के रूपमे प्रकट किया ।
हे ज्ञानावत्तार ! जो मंदेमति पुरुप श्रापको साधारण लेखक भानते दँ वे ्रापकी माया से मोदित है । हे सर्वज्ञ! श्राप ही नका है, आपह विष्णु दै, तरादौ महेश्वर है । नाथ ! समस्त कषान ॐ श्रापही स्वामी ह । संसार का समस्त ज्ञान च्नापका उन्िट हे । संसार आपका चिर छरी है । आही जीवो के त्राश्रय दाता श्रार श्राजलोक दाता द । जो मतिमंद यह कह कर अभिमान करते है, यह मेरी मौलिक रचना है, मेरी बुद्धिकी स्वाभाविक शक्ति है' वे यह नदीं जानते कि आपने समस्त ज्ञान काणक वार चख लिया है! समस्त कवि, समस्त लेखक, समस्त कलाकार आपके ही एक एक उच्छिष्ट कण को लेकर उल क्रू कर रहे है । हे समस्त ज्ञान के दाता! श्रापकी ही कृपा से यह जगत उद्धासित हो रदा दै । मुरु आपकी ही शरण मे जाकर मोच्च क मागे को पा सकता है । राप सवत्र है, सदा इ । शापक प्राहुभाव तिरोभाव कमो होता ही नहीं। आज भी हमारे याँ ज्ञान के त्रासन को गदी कहने की प्रथा है । जो भी निम॑त्सर भाव से च्चापके प्रथो कागान करता ह, हम उसे आपका ही स्वरूप मानकर उसकी पूजा करते है; क्योकि जगत- गुरु समस्त संसार को ज्ञानालोकं प्रदान करने बले आपदहीतो ह । हे स्वामिन् ! इस दीन दीन पर कृपा कीजिए । नाथ ! आपके अथाह सागर स छुन्ठं कणं लेकर मे आपके प्रिय भक्त महात्मा कणं का कुछ प्रसङ्ग स्मरण करना चाहता हू । उनके गुण गान की शक्तितो सुममे कँ है १ आपने जेसा स्वरूप उनका बताया है उसी का स्मरण करके मेरा रोम रोम प्रफुक्षित हो उठता है । हे स्वैश्वर माली । उसी भाग से जिसमे अनंत पूल है, असंख्य
+. हार ष् १० मक्भारत के प्रास महस्माक्ण
अकार के सुन्दर से सुन्दर सुमन दे, उनमें सं थट् सं प्रूल चुनकर दक धागा डाल देता है । श्त्तानी लाग त्स उम मी च्न चनाईं माला कहने लगते हं । उसी प्रकार मे नो भः कट् रहा हू, आपकी अनुपम नन्त ब्द वाटिका क कु चुने हृएपुष्पोकीफरद्ोटीसीमालाद्- म उन पुष्पां मं शक कश्चा धागा डालना चाहता हँ । क्यो मेरे जगत गुरू ! डल् न! च्रज्ञाहैन!
महाभासत-महिमा
घम चायं च कामे च मोत च भरतम । नदिद्धा्त तदल्य् चन्नेदास्ति न तत् क्वचित ।४ः श्रा० पः श्र ६२ शछो° ५३ शाख अनंत है, विदय वहत है । सवका लकय है सुख । जिससे इहलोक तया परलोक मेँ सुख की प्रापि दो बही सची चिदा दं । मुप्य सुख चाहता ह । समस्त प्राणिमात्रे परिश्रम का लद्य सुख है । हम जो मी क्रिया करते, उसके मतर् सुख मामि की भावना संनिहित है। शाखं के भिन्न-मिन्न मगि ह । कोई किसी मा से जाना चाहता है, कोई किसी मागे से; किन्तु उरश सवका प्कमात्र सुख की प्राप्ति ही है । दतिदास भी एक शाख ट । आजकल इतिशास शब्दं यथाथ अथं भे प्रयुकतनहीं हो रहा ह । शरमुक राजा इतने घषे गदी पर वैखा, उसका शासन काल इतने दिन रहा, उसने इते कायं कयि, अक स'वत् मे पैदा इया, अमुक संवत् मे उसकी गूत्यु हई, बस, इसी को लोगं इतिहास समति टं । ाधुनिक पाठशालाच् मे ये दी वातै रदा जारी है, . किन्तु यह तो इतिहास का एक बहुत ही अनावश्यकं छग है। इति- हास का यथाथ प्रयोजन तो मक्त है, जिसे नकर इस संसार ‹ से, स संसार के प्रचो से विराग हो उसे दी इतिषटास कहते दै । घ्ाधुनिक काल मे इतिहास की सीमा अत्यंत दी स'कुचित दो- ` ` दू सजन धमर र्भ काम रौर मोक कै विषय मेनो वाते - यों ( महाभारत मे ) है उन्दी का रूगरन्तर सवत्र दै, ज बति यहं नहीं बह किसी भी स्थान मे नद ह । -
१२ महामारत के प्राण मदात्मा कणं
गई द । पाशच्यात्य इतिदासवेतता पच हजार वपं से श्नागे वदृते ही नदीं । पच हजार वपं से परे के काल का इतिदास सं श्रग- म्य बताते । किसी ने युभसे कदा था फि पश््विमीय दशन शाख जँ जाकर समाप्त होत्रा रै, पूर्वीय दशन शान्र का वरहा से श्री गणेश होता दै । यह बात चाद अल्युक्तिपूणे भले दी हो किन्तु इतिहास के विषय में तो मँ दावे के साथ कततारहूकरि इतिदास का जाँ से आधुनिक इतिहासत्त श्रारंभ मानते दँ नौर उन्होने श्रपनी ठयथे कल्पना के आधार पर जो त्रार्या के आगमन का काल, वैदिक युग, पौराशिका युग त्राटि की कल्य- नाये की है, वे कल्पनाये एकदम असत्य रौर व्यथ है । महा- मारत के पश्चात् तो इतिदास मे उल्लेखनीय कोई विपय दी नहीं रह जाता । जो गाथा हमे भगवान की च्रोर नीं ले जाती
वह तो ध्यथ॑ की वाणी है । अमुकथवन राजा किस सम्वत् मे हुता; उसने श्रमुक देशपर किंस तिथि को चदा फी; इससे हमे क्या प्रयोजन † हमारे बच्चे इन वातो को क्ठस्थ करके क्या लाम उठा सकते ह १ “सा विद्या याविसुक्तये' विद्या वदी है जो हभभुक्तिमामे की नोर ले जाय। शाख्श्रनादि हं, बेकभी नाश नदीं होते। भरलय मे भी उनका अत्यंताभाव नदीं होता । वे सदा स्वेदा एक रस वने रहते है 1 इसी तरहं "महाभारतः इतिदास अनादि दै । उसे भगवान वेद- व्यास ने संमरह् किया है । अपनी योग दृष्टि से उसका संकलन . क्ाहे। जितना हमे आज महामारत उपल्ध है, उतना ही महाभारत शरदे दी है; यद तो उसका शतांश भी नहीं ह। रत्येकं युग भें यद् भारत इतिहास ज्यो का त्यो बना रहता हे । $ यक्ते, गन्धव, भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक
महाभारत-महिमा १३
सभी लोको के जीवों को इसी श्रावश्यकता होती है श्रौर सभी, इसका श्रवण पठन करते ह । कलियुग क जीवों को श्रह्प बुद्धि नरौर श्रल्पायु देखकर भगवान वेदव्यास ने यह लक श्लोको का म्रन्थ कृपा करके मत्य॑लोक के प्राणियों ॐ लिये प्रदान क्रिया । भगवान वेदव्यास ने क स्थलों पर दस वात को दारे के साथ कहा है किध, श्रव, काम श्नौर मोदा के विषय में जो इसमें है बही सवत्र है । जो वात इसमें नदी, वह कदी भी नहीं । मेनि सव भापाश्रों को कदनियां तो पदी नदी, किन्तु मै इस घात कोद्दृताके सायका हं शि काईभो कहानी किसी माषा भे रेसी महीं वन सकती जिसका ठोँवा महामारतमँ न हो। मनुष्य की बुद्धि की जहोँ तक सीमा है, जहो तक मलुष्य सोच सक्ता है; वे सभी वातं सूत्र स्य से--कदीं संदोप मे, कदी विस्तार से महाभारत मे है । मारत एक ठेसा अदुुत प्रथ है किं दके टकर का दूसरा प्र॑थ मिलना कठिन ही नदी, असंभव ह । मनुष्य सभाव का, प्रकृति का, जीवों की मनोदृत्ति का जसा जीता जागता चरित्र चिच्रस भगवान वेदन्या् ने किया है वैसा कोई मनुष्य कर ही नदी सकता । महामारत एक अथाह समुद्र है, समस्त कविय को उसी मे आश्रय मिलता है । उसकी अगाधता, दुरूहता,महानता शौर खारीपने को देखकर लोग प्रायः कट् उठते चाद कितना भी महान् कयो न हो यह जल है तो अपेय । इस खारी जल को सव कोद सो पान नहीं कर सकते । हमे तो कू की ही शरण केन होगी । हमारा काम तो नदिर्योसेदी चलेगा ।*विन्तु.हम पूते दै-नदियो मे चोर इं मँ भी जल कहाँ से आया १ वह भी तो समुर से ही लाया गया है! समस्त रल तो समुद्र के ही गभ मे धिपे! त्राज जितने कान्य.जितने
नाटक, जितने इतिहास वने दै, वन रदे, बनेगे उन सवका
१४ महाभारत के प्राण मदात्मा कर॒
शरा्रयतो महाभारत ही दै। जसे विना विधरिपक समु के जल का खारापन दृर क्रये कोद उमे पान नदीं कर सक्ता, उसी प्रकार विना भिसी सतशान्रन्न कौ मदायता के सदामिरतत से कोई लाम नीं उठा सकता । व्से तितिक श्रमहो जति हं । आधुनिक लोग महाभारत के विपय मँ धिचित्र विचित्र वतिं कहते दं । उन सवका यहाँ उत्त छरना श्परासंगिक होमा । यहाँ केवल इस प्रसंग की चचां करम का प्रयोजन इतना दी दहै कि महाभारत एक श्ृवं प्रथ ह । उसे सुनने सममने के लिये श्रद्धा की आवश्यकता है । वह् श्रद्धा भी भारतीय संसछतिकी शद्धा हो | आज पञ्विमीय अनाय सृति ने हमारे देश. वासियों के मस्तिष्क ॐो इतना दपित श्रौर विकृत वना दिया ह, किवे सव वातं मे एकदम भौतिकवाद वन गये षु ते दस दीखने वलि देश को दो सव छु मानते ह । स्वं पाताल ङ नहीं । सुद्र पार दापू हौ पाताल लोक है; यद, राक्र, देवता, किन्नर ये मनुष्यो की जाति है । रेली भ्रम पूणे वातं आजकल हमारी होनहार संतानं के मस्तिष्क मे भस जातो ह। हम अपने काव्या के पात्रों की महत्ता को एकदस भूल गये हं जो वास्तव मे यथाथे पात्र ये । आज परिवमीय लेखको के काल्प- निक उपन्यासो के पत्रो के चरित्र फ़ पद् कर हम प्रसन्नता का अनुभव करते हँ ओर उन पश्चिमीय ्रालोचको के स्वर में स्वर मिलाकर हम चिज्ञाने लगते ह “देखा चरित्र चित्रण व्यास
शरोर वाल्मीकि ने मी नहीं किय” यह् हमारीं अनभिज्ञता दै | महाभारत की धसं, अथे, काम चनौर मोक को बरतो को छोड दीजिये । केवल उसके पान्न के चरितो कतो ही शांत चित्त से,रिथर द्धि से प्द्धपू्वक पदि । कितना रस, कैसा आनंद आगा १ चापकर मन-मचूर चृत्य करने लगेगा । महाभारत के समस्त
म्भारने-मदहिम) १५
पाप कमे पन्न ए, उन्म जीवन कनिना उच्छ्र द, उनक्रा
सृन्ना, करना कनी तीष? उना चरित्र केना महान 2 मव केविपययं नाम श्न्यम्थाने नें उल्लस करना
ष:
धयन्भय ट हुन येति मवार कया चरित्र के सम्य म क वाति पाठं क मन्युस ग्स्यना चात द्रु । एमा विशुद्ध
चरि, ?निश्स फा पाच, पोाजनेपरभी नंमार् कर प्न्य आआयाश्या कंरनिाम मं क् भिनगा? कश महाभारत के गस्य पाद, यार्यामीक सकते द्किक्सद्द महाभारत क धप) द्म सववान का उन्मि तो प्रगते अध्यायो मं पदर पटनद्ति | योना कन मंततेषसें उनके चित्रक कु
त ऊ लामेमी | उन्म यथाथ शरीर पूगा चरित्र तो मदा भम कपटूने नेद पता चततेया | मदामारतत क प्टूनसं चग्तरिसान या स्वनं ग्रामि नदी हती, छवितु मान्त मी मिलता ट ग्रह यथाथ मच्च
[4 ¢ महाभारतं कं प्राण महालसा कण
तत्रं स्वग कथं गच्छेत् शसखपूतमिशत प्रभो । संधपजननस्तस्मात् कन्यागर्भो विनिर्मितः इस वात को पूरणं निश्चय के साथ कोई नीं कह सकता कि महामारत का प्रथान कारण क्या था १ जव हम आदिसे छर॑त तक महाभारत को पद जातितो हमारे मनपर एक दी छाप शेष रह जाती है, बह यह् --“्रार्ध को कोई मेट नदीं सकता । दवेच्छा दी प्रधान है। मनुप्य जो करना चाहता है उसे कर मही सकता श्रौर जिसे नदी करना चाहता बह उसे प्रारम्भ वश अवश्य करना पडता ह । इसी वात पर सम्पृणं महाभारत म जोर दिया गया है । स्थान स्थान पर यह चात दुहरा गई ह । युद्ध करना फो भी नदीं चाहता । धर्मराज तो केवल ५ गर्वो का राव्य लेकर दुर्योधन के त्रधीन रहने कों भी तेयार ये, किन्तु दैव क इच्छा देसी नदीं थी । महाभारत हुच्रा चनौर उसमे समस्त कत्रियो का संहार हु । परध्वी निःक्तन्निय दो गई । भगवान इस पर्व को छोड़ गे श्रौर श्रधर्म-बन्धु कलियुग का अधिकार इस अवनि पर हुश्रा । अव यहां इस बात पर विचार करना है कि महाभारत के मान पा कोन माने जा सक्ते हँ १ भगवान मधुसूदन
छदे राजन् ! एक बार रहना जी ने सोचा -प्वे पृथ्वी के त्य खद म शस्् दारा मर कर स्वर्गं म किस प्रकार जायं १ इसी्ये | उन्दने त्रयो के बौच मेँ शुद्ध सूपो त्रण्नि को उतयन्न करने बाला
एक पुरुष ( करं ) उतपन्न किया जो कुन्ती की कल्यावस्था मे प्रकर हन्ना ण]
महाभारत फे प्राग मदात्मा कर्ण १७
श्रीकृष्ण नो तौ सद् दीलिये 1 उन्दे तो टम प्राकृत पान्न मानते ही मदी । उनेकीष्न्द्ा न पती तव नो महाभारत फी क्या जगत शी भी कल्पना दम नटी कर सकते । वेदी सवकेषट ष्ट मंम फरक समन्त व्यार कराते ह । महाभारत उनकी ठी इच्य्रा से दुरा, उन्दूनि प्री फगाया । वे चाद्यते तो महाभारत पफौ सौर दते । वे नातं नो दुर्याधन फो पकड कर बन्दीगृह में शालदेते। पे चानेन युत मभाषत एरी नहीं । वे चाहते नौ पहर थम साते # नीं ये ही महाभारत नाटक फे एक- सार सृन्रधार् है । न्दं सोद करप पा्रोंमे से किसेहम मषाभारमे को प्रधान कारण कद, जिन्दँ निकाल देने पर हम म्टाभारन कौ कल्पना भी नी कर सकते † हुते मे नग फते द द्रौपदी महाभारत दनि मे कारण है । , राजसूय यश्च मे जय दुर्योधन फो जल मँ स्थल क श्रौ स्यले भे जल फा श्रम हु्रा श्रीर् जल को स्थल सम फर चद् धुस गया, उसे कपट भीग गये तथा स्थत को जल सममकर कपदे सर्मै- टै लगा श्रौर रपट पड़ा उस समय द्रौपदी का हसना ही महा- भारत का सु्रपात द| उस समय द्रौपदी द्वारा अपमानन श्ना दावा तो संभव दै महाभारत न देता; किन्तु यह् वात हमारी समम में श्राती नी ।जो भी ्पाडवों की रानी वहां होती वदी हमत श्रौर उसके दारा दी दुर्योधन का श्रपमान होता । दमारी सममः भे द्रौपदी को यदह नदीं कट् सकते कि द्रौपदी के निकाल देने से महाभारत की कल्पना दी नीं कर सकते। आप कगे यह तो प्रत्येक प्रधान पात्र के लिये लागू दो सकता है । दुर्योधन दी न होता तव ही मह्यभारत क्यो होता १ या धमे- राज युधिष्ठिरद्रीन हेते तव भी महामारतन हयता। किन्तु ध्यान-पूरवंक विचार करं तो इनके विना भी सहामारत की कल्यना
ष मदाभारत के प्राण मदार्मा कग
कीजो सकती दै । भृतराषट् के सभी पुत्र लड़ाकृ धः दुाधरन न मी होता नो वे ६६ दीलइते । थमैराज की श्यनुपस्थिति मं चारो भाई अपने भाग के लिये लड़ सक्ते थ, किन्तु सम्प महाभारत को पदे पर ची घात ध्यान मे आती द कि एकमात्र कणे ही रसे पाच है, जिन्दँ निकाल देने पर हम महाभारत करौ कल्पना ही नहीं कर सकते । यद विलकरल सत्य दै कि महा- भारत के प्रधान कारण कणं ही थर । सम्पू महाभारत में एसा सवेगुण सम्पन्न पात्र दरे पर भी नदीं मिलेगा । उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी । उनमे सभी गुण यर । उनके सभी गुण एक से एक वद् कर थे । वे नर-रत्त शरे, उनकी टक्कर करा उस समय प्रथ्वी पर दूसरा पुरुप था ही नहीं । उनके एक फ़ गुण की प्रशंसा म पोथे के पोथे लिखे जा सकते ह । उनकी लीनता, सचरितरता, दानशीलता, ्रह्मस्यता, उदारता, महानता, सद्रदयता गंभीरता, हदय की विशालता, धीरता, शूरवीरता, धमेपराय- एता, उचितज्ञता एक से एक वशंनीय है । सभी गुणो के बे समुद्र थे अपने समान मे स्वयं ही भरे उनकी टक्कर का एक मी गुण मे कोद दूसरा पुरुप नदीं था। यो धमे परायरता से पमराज भी थे, शूरवीरता मे अजु नटुरयोधन भी ये; नीति मे बिडधर भी थे, किन्तु समस्त गुणो का एक ही स्थान से समा- वेश महामा कए के दी जीवन मे पाया जाता है। बे सभी. गणो मे अद्वितीय थे; किन्तु भाग्य ने उनका साथ नदीं दिया । परिस्थितियों ने उनके गुणो को चमकने नहीं दिया । आरभ से ही देव उनके अनुक्रूल नहीं रदा । राजपुत्र होकर भी वे सूतपुत्र सदेलाय । चक्रवर्ती पद् के अधिकारी होकर भी .वे दूसरे के चाश्रय से ही सदा रहे । आश्रयदाता मी एेसा नीच पुरुप मिला क किसने अपने उपकार स उन इतना लाद दिया जिससे यिव
मदाभारन के प्राण् मदात्मा कणे १६
कर शी इन्हु सतका परस्व उचित च्रनुचिन काम मे साथ देना पर वे षपनानः र
तरे यनी नरद्रीग्लाको भी द्रदय सालकर सवके सयः; स्यो दता से लैकर युप्य तक्र सव उनके विस्दरहा मवे । सेमनार फी पृरी शक्ति इनक विष्टो मर । नीनां लोकन मे उनक्र धिस्य पटयन््र रवा गया; फएिरभी न र् पो धमं -वृद मे फोर जीन नीं सका वह् श्रथरम-पृवक ही शयया गया। कत के जीयन गत मुस्य-गुख्य चटनार््रा का उल्लेख तो पारक श्मगने प्रकरं में पट् गे दीय ता कवल उनके दर चार गुणो दिन्दतान नाद्य कराया जाता दै। इससे राप समर्मेगे कियदाभागत के प्रधान कारश त्रे हीय । वे स्वयं भी नदद चाहते कि महामागन दोचिन्तु त्र्राजी ने उन्द पदा दी इसील्िये किया थापि महाभारनकरमे द्री कार वनं श्रौर समन्त सच्रिय पर म्परे मं क्लदृकर मर नावरं । दर्याधिन यथयपि वीर् था, किन्तु भीर थ| उसे श्रपने घले पर् विनाम नहीं था । यद्यपि बह जन्मसे दी पांडवों सेद्ेप रखता धा. निन्त उस कमी इम वाति पर विश्रासि नहीं दोत्ता था कि श्रषते १०० भयो सिनी द्रत पांडवां को जीत सकूगा सीनियर बद विनिन रहना धा ।यदि चसे कर्णं का सहयोग प्राप न हाता ना वद कभी पाड्वो का सामना करते की बात मनम न माचता। यद्री नरी श्रपितु अपने निर्वाह के लिये वह धमराज (के सामने धरुटने देककर् प्रधना करता कि समे भी इ मिलना 'चाधयि । करणं का सहयोग प्राप करके उसकी हिम्मत यदं तक, यदी कि पाड को समूल नद कएने क दी रतिन्ञा.उसन करली; फिर भौ वद् स्वतंत्र नदीं थाःसदसा. पांडर को मारने मे उसके सामने श्नेका अडचनें शी । न्यायतः वह राज्य का अधिकारी
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4 २० महाभारत के प्राण महात्मा कणे
नदीं था । वह् क्या उसका पिता धृतराष्ट् भौ धरमपूवेक राजा नी था । वह् तो राजा के माच मेँ स्थानापन्न वनावटी काम चल्लाञ राज्ञा बनाया गया था । तिस पर बह जीव्रित था ¦ सवसे वडा कंटकतेो दुर्योधन के किये उसका पिता ही धरा। वह् दुर्यीधन शी भोति करूर मौ नहीं था] सद्रदय थाकिनतु पुत्र स्नेह के वशीभूत होकर दुर्योधन की अनुचित वातो का भी विवश होकर समथन कर देता था । इन्दी सव कारणो से वद् श्रारंभ में हो पांडव से खुलकर बिरोध न कर सका; किन्तु महावीर कं करी सहायता से बह सतनत्-सवतं् चक्रवर्तो राजा तो वन ही भै चाद उस्रा यह कायं अनधिकार चेष्टा ही क्योन कहा जाय। इसके पश्चात् भी वन से लौट कर् तराने पर वह् सूट कौनोफ के बरावर पृध्वी ने को भी तैयार नदी हु्रा। उते महाधनुषैर पितामह मीष्म का मरोसा नदीं था, न उसे श्राचार् द्रोण से इद च्राशा थी, कृपाचाय, अश्वत्थामा तथा चनौर भी वीरौ पर रसे विवास नहीं था उतनेतो एक मात्र कर्पके हो वलवूते पर . युद्ध करते का निश्चय किया था | महात्मा कणं के सामने कितने वदे २ प्रलोभन अये;किन्तु उस वीर ने कसी पर ध्यान नदीं दिपा । उसने च्रपने मित्रके साथ स्वप्र मे भी विश्वासघात क कल्पना नदो कौ । सचमुच यदि महावीर कण अपने पथ से तनिक भी विचलित दो जाते, बे थोडी मी ठिलाई कर जते तो उनका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता। कीजिये, उनके विरुद्ध कितने कितने पड यन्म रते गये । धर्मराज युधिष्ठिर को युद्ध म भीष्मपितामह द्रोणचायं, अश्वत्थामा, रादि क्सिभी च चयी च महारथी की चिन्त त दन कण को ही वरता स्मरण कर धिक
मदमार फे प्राण महात्मा कर्यं २९१
लना रती धी । वे गाननिगातरिभर शोक भ लम््ीससि लेते रहते ये । करं कौ .वीरता को स्मरणा करके रात्रि मे चनद नीद तदी श्वाती भौ । क् ङे के उन्दने घोर तप किया । श्रुत को सयग भेजा, फिर वदं जाकर द्र, वरूण, कुवेर, यम सभी लोकषालों ने कणं फे विच्दध पद्यन्वर किया । सभी ते जुन को प्रपते श्वन्दरिये। पतने मेदी संतोपन हृश्रा! श्रजुन.के पिता देवराज ददर मे णेसौ कुर्ता का काम्या कोई मदुप्य एता काम फरता तो उसे कृत्री कह कर संसार उसकी निन्दा करता । श्रर्जुन फा भला करने फे लिये देवराज ब्राहमण फा रेष र कर कं के जन्मजात कवच श्रौर कृंडल मांगने के लिये श्राये । भरता फी हद् दो गई, देवताग्र के राजा-की टसम श्रि िर्वेलता श्रौर क्या होगी कि वह पते पु फीरत्ताेलिगेसा पाप फरे। कणे कै पिता सूयं ने.भी पने पुत्र फो स्नेदवस सरवेष्ट कर दिया--“वेटा, दन ्राह्मण का देय र्रफर जव तुमसे कवच कुंडल मांगने श्रावे तो तू मत देना !“ उम बीर ने श्रपनी स्वाभाविक उदारता, दान- शीलता, नरघर्यता के श्रावेश मे कदा--^पिता जी, मँ पकी नमतत श्राताश्रो का पालन कगा; वन्तु जो मेरे सामने दाथ फैलवेगा उस्म शना कैसे कर सक्ता इन्द्र तो तमसा के मेपमे तवेमे | वे यदि इद्रकेवेप मे भी भ्तित मना नहीं कर सकता!“ सूर्यदेव ने दर तरह समाया किन्तु बह वीर् श्रपनी परतिज्ञा पर उटा दी रहा ।
श्प कृत्पना कीलिये,एकान्तभे उसकी जननी जाती दै । चौर कहती द वत्स ! तु मेरा वेदा दै, राधा का नरही। तू अपने माई ' पांडव से संधि कर ले ! दरद प्रतिज्ञ कण कहता है-“मां { यह ठीक कै त्रापका पुत्र ह । यह भी ठीक दै, पांडव मेरे भाई दै
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२२ महामारत के प्राण महात्मा कणं
किन्तु स'सारम तो सूतपुत्र के नाम से प्रसिद्ध ह । ्रवर्म पांडव से सन्धि करता हँ तो लोग यही कर्मो कि मने श्रजुन से इरकर पांडवो से मेत कर जिया । शरपकीर्ति की चरपेका मै मर ` जाना अच्छा सममता ह| दे जननी । श्रव मोजो वचनम दुर्योधन फो दे चुका ह उसे पूरा कं गा। फिर भी मेरे पास याचना करने वाला कभी निराश दोकर नहीं लौदता। मँ द्हारे चार पुं को वशा मे प्राने पर भीन मागा । श्रजन मेरे हाथ से मारा जायगा तो भी सुमे क्तेक तुम्दारे पोच पुज बने ही.रहेगे ओर उसके हाथसे मै मारागयात्व तो पचो है दी ॥ इतने सादसपूर, युकति-यु् वचनं को सुन केर माता का हृद्य भर आया ओर उसने आशीर्वाद दियारा ! तेर मंगल हो; तू अपने मित्र के कल्याण मे सदा लगा रह ¢` ये वचन्, इतना साहस कण के ही श्रनुरूप था । इससे भी वद् कर उसके हदय की विशालता सत्यपरा- यता, उस समय देखी जाती है जव उसे भगवान श्रीकृष्ण एकान्त भ लेगये चर उसे इधर-उर की बहुत-सी घाते सुफाकर अंत भे उससे कदा“ पांड् का सव से वड़ा पुत्र ह; 'न्या- यतः राज्यसिहासन का तू. ही अधिकारी है | तू पांडवों से सन्धि कर ्े। समस्त प्रण्वी का धर्मराज तुमे चक्रवर्ती राजा बना देगे । पांचो भाई आकर तेरे चरणौ भे भाम ` करगे । भगवान ने तो यँ तक कट् दिया कि ` जसे | 1 से भ्रतिदिन द्रौपदी पांच भाद की सेवा म जातीः ` घटे दिन तुम्हारी सेवा मे भी बह आया करेगी इतना | मारी प्रलोभन होने पर मी वह वीर विचलित नहीं इ । . उसने मेष गम्भीर वाणी से खष्ट शब्दों मै कह दिया-- ` भञघूदन । आप यह् क्या कह रदे है । श्रलोक्य का राज्य
मष्टाभारत के प्राण मदात्मा कर्णं २३
पाने पर भी श्रव ओ दुर्योधन फा साथ नहीं चोडा । दुर्योधन 0क मात्र मेर् ल भरोसे पर दवी पांडनों से लड़ने को तैयार है। उसके साथ मँ चिश्वास्घात नहीं कर सफता 1” ।
फं के गुरो की प्रशंसा जितनी कौ जाय उतनी ही थोड़ी है । उसके समस्त जीवन में एक ही वात श्चनुचित शौर खरम धाली दिखाई देती है । जिस समय सभा मे द्रौपदी का वलाप- हरणा किया गया था उस समय उसने कृं श्रुधि शष्ट दरौपदी केलिगक्द् दिये थर । सो भी दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिये, उम कृतत्तता फे वोम से द्व जाने के कारण उसने ेसा किया; फिर भी इसका इसे जीवने भर पश्चात्ताप रहा । शपते इस ददेय कं पश्वात्तापको रो रो कर एकान्त में भगवान क सामने उसने प्रकट भी फिया था ।
भरसराज युधिष्टिर ऊँ प्रति उसका क्रितना उभाव था ! बह धर्मराज का द्दय से क्रितना सम्मान करता था { इसकी मलक स्मान स्थान पर् पां जाती दै । पांडों से सन्धि करने की वात कणं ते जव नहीं स्वीकार कीरध्वीके राज्य को जव कणे ने ठुकरा दिवा श्रौर भगवान श्री कृष्ण लड़ाई होगी यह निश्चय कर के चलने लगे तव कणं ने फिर से रथ खडा करके गधो म षू भरफ उनके कान मे कदा--“मधुसूदन ! मेँ छन्ती का पुत्र युधिष्ठिर का सगा भाई ह इस यातत फो राप धमराज से कभी भूलकर भी न क । महात्मा युधिष्ठिर सत्यग्रतिज्ञ शरोर धमात्मा ट, उन्दरं पता चलेगा कि मँ उनका वड़ा भाई ह तो वे समस्त पृथ्वी करा राज्य रुमे दे दै, वे कमी युद्ध न करेगे । ग दुर्योधन की करतन्नता के वो से इतना दवा हू कि उस समस्त राज्य को मेँ दर्योषन को दे दू गा । तव पांडव ज्यो क त्यो भिखारी बन जायेगे । दुर्योधन षड़ा नीच है, मेरी हार्दिक इच्छा है
छ - -महाभारतके प्राण मदात्मा कं
कि धमराज युधिष्ठिर समुद्र पयन्त समस्त पृथ्वी क. प्क चक्रव वने । यह् तभी संभव दै, जघ्रवे युद्ध म कौरवो को - मार सकं ।" 4
इन शब्द मे करितना ममत्व है.कितनी शरद्धा दैकसा अमना पन द, कैसी बन्धुश्रो के प्रति उचाकांा दै । इतनी श्रद्धा, इतनी सरलता, एेसी सचाई, इतनी ददता कसं के दी चरतुरूप द । उनके समस्त चेरित्र अलौकिक दं, उन्दं पाठक अगले प्रकरणा मे पटृगे ¡ यँ सो केवल दो चार वातां का दिष्डशेन मातरी कराया गया हे ।
यदि द्रोणचाय॑ उदारता पूर्वक उनके गुणो ऋ द्र करके उसे हृदय से समस्ते असश सिखाते, यदि भूल से गौ के सरने पर त्राह्यश का शाप उन्दं न दोताभयदि परशुरामजी उनके साहस श्रौर गुरुभक्ति पर शंका न करफे प्रसन्न होते श्रौर शाप न देते, यदि समस्त देवता श्रौर न्द्र उनके 'वरुद्ध पडुयन्त्र न करते, यदि पितामहं भीष्म उन हर समय खरी-खोटी सुनाकर वारवार न षिते, यदि शल्य रथी बनकर भी उनके साथ विग्वासघात न् कर्ते, यदि जगत के एकमात्र कारण भगवान बासुदेव ्रधमंश्रोर चल के द्वारा मारने का चर्ुन को उपदेश न देते, यदि पृथ्वी ठीक समय पर उसकै रथके चक्र को न भस लेती तो आज संसार म कणं को कोई न पराजित कर सकता थाःन मार सक्ता था;किन्तु मावी अरवल थी.ठेसा दी होना था । ये सव वाते महामना कण क प्रतिद्रूल पदीं फिर भी वह् धमः । पूयक नहीं जीता गया, न्दं जीतने के रिये छल-वल का आश्रय
लिया गाया । कणं जीत तो लिये गये, किन्तु सुर्यो ही
1 । हीनेस्या
| देवतार्यो नेमी उन हारा हृ नही माना। मरनेपर भी विजय उनकी ही हुई । उनकी कीति, उनका पुख्य यश अवभी््योका
मह्मभारतफे प्राण महातमा कणे २५
का स्यो वना द. प्रार् यावन चन्द्रदिवाकर प्रश्वी पर विद्यमान रग दृशं कायश्च इमी प्रकार निमे बना रहैगा।
शरियं कर लिये स्याद पर पडे पड़े मरना कलंक है | ध्य स्वाभाविक सौति से रोगी वनकर मृल्युशैया पर पड़े एः प्रा श्राह कर्के मरता दतो ब्रह नरकको जातादटै। सिय फौमृल्यु फदाही विधानं यातो वह् धमे युद्धम सन्युग्य लद्कर दाख के प्रहार से श्रपने प्राणो का परित्याग कर् शरभतां राजपद दृ कर जंगलो मे तपस्या करता हुश्रा यामाग्नि सत श्रषने शरीर को भस्म करदे । इन दोक श्रतिरिक्त नोनरे प्रकार कौ गद्यु चत्निय फे लिये उत्तम नदीं मानी गह टर" मदाभारत मेंनौ यदोँतकक्हागया ह किरणभूमिमें भागते हुषो जो मारे जिद उन्है चाहे स्वगंन मिले किन्नु उनकी भी श्रधोगनि नहीं होती । वेद-शा मे दो प्रकार कामय शर चताई् गवी दै; प्क तो सव छोडकर जो योग- यक्त दाकर रीर त्वागते ह उनकी, दूसरी जो धमंयुद्ध मे सम्मुख लते द उनकरौ |
द्राविमौ पुस्पौ लोके व मंडलमेदिनौ । प्रि. योगयुक्तश्च रणं चामिमूखे हतः ।
यद्रि महाभारत न दोता तो समी तत्रिय नरकं गामी . वनते । ज्ञास करोड़ों अस्थ सत्रियो को जिनके कारण स्वगं की प्राप्न हुई । उस महामना कणं के पुनीत चरणों भँ बार वार् प्रणाम करके हम इस प्रकरण को समाप्त करते है शरीर श्रव श्रागे के प्रकरणं मै शरतयंत ही सं्ेप मे. महात्मा कणं ङे जयन चरित्र को आरंभ करेगे । |
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न्ती को दुर्वासा से वरप्रापि यदि नेच्छसि मन्तरं वरं भदे शुचिस्मिते । दम मंत्र गहाणत्वमाहानायदिवोकखाम् । य॑ यं देवं त्वमेतेन सव्रेणावाहयिष्यसि। तेन॒ तेन वशे भद्रे स्थातन्य" ते मविष्यति ॥>
संसार मेँ समस्त प्राणी प्रारब्धवश होकर परिभ्रमण कर रे है । जीव नदी मे पडे हुए तिनके के समान डे; स्वयं वह चलने मे असमर्थं है । नदी का प्रवाह जहाँ चाहे उसेले जाय । करीं उसका सुन्दर सुन्दर मरकत मणि के खश सुकोमल घास के संग होजाता है, कुद समय उसमे उलमः जाता है; दूसरा अवाह आया वहाँ से भी वह गया । श्रागे उसे महान कटको की शाखायें बहती हुदै मिलती है, प्रवाह के चक्कर मे पड्कर ङु दूर उनका साथ हयो जाता है । एक श्रोर का प्रवाह आता है, टो वाली डाली कीं दूसरी श्नोर वहं जासी है; चरण कदीं दूसरे ठो म जाकर मिल जाता दै कमी बहुत से तृण एकन्नित हो जाते है, कभी फिर सब प्रथक् प्रथक् हो जाते ह । जैसे वायु से सूखे पत्ते एक जगह से दुसरी जगह जाते आते रहते है, वैसे दी प्रारज्यवश जीव करीं से करीं भटकता रहता है । उसका न करीं निश्चित त
ऋदुर्वाषा कुन्ती से वोल्े-!हे बेटी { यदि तू मुभः सेवर नीं मोगती सो मेरे इस दिये हुए म्न को त् ग्रहण कर । इसके प्रभाव से
तू जिस जिस देवता का आवाहन करेगी बह श्रवश होकर तुम्हरे सामने उपस्थित दो जायगा ।
क्न्ती फो दुवांसा से चरप्राप्ति २७
का संग घरदरा है, उतने दिन रद् फर बट उससे ग हो जाता है । य॒ह् नियम भनुप्यो फे दी लिये नही, पशुप, कीट-पनंग, ३ट.पत्थर, स्थावरजंगम सभी फे लिये एक सा हीलाग् है) „ भगवान की कैसी श्रटभुत माया दै | को कीं उलन होता ६. उसक्री स्याति कदं दृश्वरी ही जगह होती ह । कोड किसी के शुर से उत्पतन होता है, माम दूसरे का होता दै। कमी सगे माई एक माता के गभ से उत्पन्न होने वले परम शत्रु बन नाति 1 कदी की देखा भी देखा गथा दै, सिनसे पना कोई सम्बन्थ मदी बे लोग श्रपने सगे सम्बन्धरयो से श्रधिक स्नेही श्नीर प्रमी ग्रत जते द भगवान ने यह वदी कृपा कीकिंहम सवको रसने सर्व्नता प्रदान नदीं फी । यदि हम सवैज्ञ होते सो संसार भं रथस सदा दष दी करते रहते । सदा चिन्ता मेँ ही मस्र र्ते कि कल यष धिपत्ति श्नानी है, परसो यह अनिष्ट होना दै । भविष्य फी श्चनमिक्नता शरीर भूत का विस्मरण हमारे जीवन फो युखद वनाता है, हमे श्रनेक श्रापततयो की चिन्ता से वचाता दर । जो त्रिकालज्ञ कहे जाते है इन्दर मी हर समय समस्त घटना का स्ञान नदीं होता, उनकी ण्टिके समाने भी भूत भविष्य की समस्त षदनार्ठं नाचती नहीं र्तः दे भी ध्यान मग्र होकर दी देख सक्ते । श्या न देता तो बदे.डे ऋपि महरि, देवतां फो भ्रम क्वो होता ¶ व्रह्मा से ) लेकर चीरी पर्यन्त सभी प्रारव्थ के श भे दै, समी काल के चरा होकर क्रिया कर रहे है 1 सभी दैषेच्छा के श्राधीन छेकर व्यापार भे प्रवृत्त हो रदे है, इससे यदी कहना पढ़ता हैक ्ारव्य फो को मेद नदीं सकता, भावी होकर रही रहती है। |
रप महाभारत के प्रण मदात्मा कण
यदुवंश मेक परम प्रसिद्ध शूरसेन नामके राजा थ 1 उन्दी के कारण भगवान श्रीकृष्ण श्नौर उनके धंदाज शीरि कटलानं ह । महाराज शूरसेन की पतनी का नाम मागिप्रा धा । महारानी मारिपा के गभ॑ से ओर महाराज शूरसेन केः वीयं से {० पुत्र शौर ५ कन्या उलन्न हुई । उनके दरस पुन्न के नाम वसुदैव, देवभाग, देवश्रवस, आनक, सजय, श्यामक, कक, शमीक, वत्सक, वृक ये थे श्रौर कन्याये" प्रथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, र तश्चवा श्रौर राजाधिदेवी इन नामो से विल्यात थीं। सव मादयों मे वसुदेव जी वड़े थे श्रौर वहिनं मे प्रथा सवसे बडी थी । प्रथा महाराज शूरसेन की सचसे पहिली सन्तान थी महाराज शुरसेन की फूच्रा के लड़के इन्तिोज ये ¡ शूरसेन छरीर इन्तिभोज मे बड़ा भारी प्रेम था। दैवयोग से महाराज इन्तिभोज अनपत्य थे । उनके कोई सन्तान नदीं थी । उन्दने छपने परम सुहृद मामा के पुत्र शूरसेन से कदा- शिवा, मेरी एेसी इच्छा है कि तुम्हारी पत्नी के ज पहिती सन्तान रो
राप सुमे दे दे । इससे हमारा तुम्हारा सौदादईं भी हद होगा रौर मै भी सन्तान वाला कदलाङगा ¢ श्पने भादकी यद वात महाराज शूरसेन ने स्वीकार की ! समयानुसार
- महारानी मारिषा ते गभं धारण किया श्रौर वह् गममं शुक्ल-
पतत के चन्द्रमा के समान वदृने लगा! दोनों ही राजवंशं मे उस गरभैःके
कारण आनंद छा गया । महाराज शूरसेन को तो इस, बात की प्रसन्नता थी कि मेरे
रे परम सुहृद महा- राजं ` कन्तिभोज की पत्नी की गोद भरेगी, शरोर कुन्ति भोज को इस वात की असक्नतां थी फि अव जै भी सन्तान वाला कदलाऽगाः। गमे के. दिन. पूरे होने ` पर, प्रसूति-कालः उपस्थित होने पर महारानी मारिषा ने एक कन्या रत्न,
इुन्ती को दु्वांसा से वरपराप्ि , २६.
को उत्पन्न किया । महाराज छन्तिभोज अपना वंश चलाने. ` को पुत्र चाहतेथे, कन्तु दैव फी देसी ही इच्छा । उनका नामसंसारमेंपुत्रीसे दही रदोना था। मारिषा के गर्भसे पुत्र न हयेकर पुत्री ही उस्न हई । महाराज शूरसेन नेः उसका नास रखा पृथा । पृथा जवद्ोदी दही थी तभी वे जिस प्रकार कमिनी एक ताल्ाव से वड सावधानी ॐ साथ दूसरे सरोवर मे लाई जाती है उसी प्रकार माथुर देश से भोजपुर भे लाईगई। महाराजे इन्तिमोज के महल म वडी सावधानो से,बडे स्नेह से उनका लालन-पालन होने लगा । वे रूप मँ इतनी सुन्दर थीं कि संसार मे उनके समान उस समय ठेसी कोद भी सुन्दर कन्या नहीं थी 1 एेसी अद्वितीय रूप लावस्य युक्त य॒लदणा कन्या को ` पाकर महाराज छन्तिभोज रौर उनकी रानी मन ही मन अत्यतं ही प्रसन्न दै । इम्तिभोज की पुत्री होने से पृथा को लोग हन्ती कहने लगे । इन्दी पृथा को संसार मेँ सहातमाकणे की तीर प्रातः स्मरणीय पांडवों की जननी होने का दुलेभ पद् प्राप्ता । .. कन्या छन्ती ने अपने च्रलौकिक गुणों से, श्द्धितीय रूप लावस्यसे माता पिताक शुग्ध कर लिया । वे उसे प्राणो .से भी अधिक प्यार करते रौर सदा उसके कल्याण के लिये दी सोचा करते । सभय जति कृ देर नहीं लगती । हम भूले रहते हैसमय बरावर श्रपना कामक्रता रईइता है। दम अपने कामों मे भलेदी रमाद् करे बिन्तु समय तो प्रमाद रहित ्रन्याहत गति से सदा श्रपने काम मे सावधान रहता है! धीरे-धीरे छन्ती के शरीरमें , यौवनावस्था ॐ चिह फलकते लगे । माता पिता को उसके विवाह की चिन्ता हुई । माता पिता की पुत्री के किये सबसे बड़ी श्राकांच्ा यह् रही है करि उसे सुन्दर घर वर मिले । इसके लिये .
३० ` महाभारत ॐ प्राण महात्मा कणं
ब्रत, अलुष्ठान, देवपूजा चीर साधु महात्मा की सेवा युश्रपा करते श्रौर भगवान से प्राना करते हं कि हमारी कन्या को सदा सुख भिते। साघु महात्मा के श्राशीवोद से असम्भव भी सम्भव हो जाता है । कालज्ञ संत छपा करफे शाने वाली घोर श्रापत्ति से अपते भक्तौ को वचा देते द । ।
उत दिनो तपस्या का युग था । समी आय नरपति वणांश्म धम को मानने बाले होते थे । गौ, बाह्मण श्रर साधु-सन्तो मेँ श्रद्धा रखते थे । लोगो में धम के प्रति आस्तिक भाव भे, ऋषि मनिर्यो की सर्वत्र धाक थी। घर घर श्रतिथि सेषा होती थी,समी वणोश्रमी श्नतिथि की ईश्वर-बुद्धि से पूजा करते थे | जिस घर “ भँ प्रतिथि नहीं आते थे, जिस गृरथ के यहाँ अतिथि सेवा नदीं होती थी,लोग उस घर को श्मसान के तुल्य मानत्ते थे | महाराज इन्तिमोज के याँ मी बहुत से ऋषि, सुनि, स्नातक, ब्राह्मण श्रते ये नौर उनका समुचित त्तिथ्य सत्कार शिया जाता था महाराज ने इस पुनीत काय के लिये अपनी पुञ्री इन्ती को नियुक्त कर रक्खा था । क्योकि कुन्ती का स्वभाव वड़ा ही सरल था, उसकी वाणी मँ स्वाभाधिक मधुरता थी, अतिथि सेवा में उसकी बाल्यकाल से ही वदी रुचि थो । दूसरे क दुख को देख कर वह दुखी होती श्नौर उपे दटाने का भरसक प्रयत्न करती । बह दूसरों के दुख दुर करने मे अपने शरीर ऊ सुख कौ भी प्रबाह न करती । उसे सब छो सेवा करने भ खतः ह बड़ा आनन्द आता था ।
महाराज उसकी तिथि सेवा की ठेसी रुचि देखकर वड़े प्रसम होते । उन्दोने अतिथि की सेवा का समस्तभार इसीक्िये अपनी प्यारी पुत्रीक उपर घोड दिया कि इससे इसे भी प्रसन्नता होगी चोर अतिथयो का भी इच्छालुङूल सत्कार हो सकेगा ।
कुन्ती फो दुर्वासा से वर्धन ३१
साधु महात्मानो के श्राशीर्वाद से मेरी पुत्री का अभ्युदय होगा श्रौर उसको समस्त मनोकामनाये" पूणं होगी ।
दवयोग से एक समय चातुमांस के पूवं ही महपिं ुवांसा महाराज कुन्तिभोज ॐ सहलो मे रा परहुवि । महर्षिं दुवासा को देखकर महाराज प्रसन्न भी हुए श्रौर घवड़ये भौ । प्रसन्न तो इस्ति हृए कि इतने वड़े महपि ॐ आतिथ्य का ेव-दुलेम सयोग हमे प्राप्त हा । घवद्ये इसलिये कि ये महपि मूति- मान क्रोध रै, पता.नही, किस वात परकर हो जथ ओर उसके फल सरूप न जाने कैसा भारी शाप दै डाले । सहरि ने महाराज कुन्तिभोज का श्तिथ्य स्वीकार किया श्र विश्राम करने के श्रनन्तर खस्थ होकर वेते- “महाराज, मेरी इच्छा किव केक वर्म आपके दी यदं व्यतीत कं । इसमे श्रापकी क्या सम्मति है ?
महाराज वड़े असमंज भँ पड़े! उनके यदह सामग्री कौ तो कद कमी थी ही नदीं । इतने वड़े महात्मा हमारे यदं एक वर्षं निवास कर इससे वदृकर हमारा श्रौर सौभाग्य हो ही क्या सकता है, किन्तु इनके अरूप सेवा नही हुदै, तनिक सी भीजुटि हो गदतो सव कण कराया व्यथं हो जायगा, न जानि कौनसा दारुण शाप दे डाले । फिर मी मना थोडे ही क्र सकते ये ! दोनो शो की अंजलि बांधे हए वदे विनीत भाव से महाराज ने कदा-“श्रमो ! मेस वड़ा सौभाग्य है) मेरे अपर भगवान कौ परम छपा है, ज आप जैसे महरि मेरा अरिथ्य स्वीकार करेगे ! मगान् मेरा परिवार, भेरा रच, फोष, मेरा सर्वस आपका ही है, मै आपका कर रः रं प्रकार से आपकी सेवा करूंगा "
महष ने सम्मति सूचक सिर दिलाया र एक स्थान पर
३२ सहामारत के.प्राण महात्मा कणां
नासन जमा दिया । महाराज अंतःुर में गये। उन्देनि सजल नेत्रो से अपनी पुत्री कुन्ती क्र बुलाया 1 उसके सिर को सूषकर बार वार पुचकार कर प्यार के साय सिर पर दाथ फेरते हए वो्ते-विटी ! च्राज तेरी कटिन परीचा का सुमद है । महदपि टरबासा यद्य एक वर्थ रना चाहते दं, उनकी सेवा कमार तेरे हो उपर बोडतः ह| मे अशा दै, तू.उसे वदी सावधानी से करेगी ।
, इन्ती ने श्रत्य॑त ही कातर स्वर म कहा--पिता जी? श्राप इतने अधीर क्षयो शे रहे है । यद तो मेरा परम सौभाग्य हं । मै आपकी इछा के अनुकूल ही महरि की सेवा करूंगी । सेवा मै श्रगुमान्न भी चुटि न रोने पावेगा; श्राप निश्चिन्त रहं /
महाराज कुन्तिभोज ने कदा--धवेटी ! सुमे विश्वास है; तू ्राएषन से महर्षि का सेवा करेगी, किन्तु तुमे उनके स्वभाव का पता नदीं । वे बडे क्रोधी ऋषि ह| क्रोधी क्या, मूतिमान करोषदहहैः] तनिक सी घुटि पर पे रेखा दारुण शाप देते हः कि सबेनाश की संभावना वुनी रहती है 1 उन्हे प्रसन्न वहत कम लोगो ने देखा है। बे शाप देते मे दी प्रसिद्ध द! शसीलिये देवतता, दानव, यक्त, किन्नर, गंधचै, मनुष्य समी उनके नाम से दही डरते रहते है # ।
इन्ती ने कहा--पिता जी ! श्राप तनिक भी चिन्ता न करे, मे आपके नाम को बदनाम न होने दू । मै हर परकर से ऋषि. को प्रसन्न रर्खुगी, मै उनके समन को जोहती ररहुगी । श्राव इस विषय मेँ निरशिचन्त होकर सुमे उनकी सेवा मेँ नियुक्त कर दीजिये! ` महाराज दुन्तिमोज श्पनी पुत्री को लेकर महर्षि दुर्वासा के समीप गये । पुत्री को ऋषि के चरणोमे डाल कर नेत्रो भे जल भर करकडा--श्ो यह् भेरी अत्यन्त ही प्यारी एक मात्र
एन्ती को दुर्वासना से वर-प्राप्नि ३३
पत्नौ दै । चह जमल मे वड प्यार से पली है, यद स्वभाव से ट सुुमारी दै । मे इते श्राप सेवा मं नियुक्तकरता ह । दीन- ` वन्धो ! मेरी व्रय्ची छत्रोधर है । इते श्रभी ज्ञान नहीं । सेवा में इससे जो तधि हा जायं उसे श्राप प्रपतने दयालु स्वभाव से सदा त्तमा करते रदं 1"
ऋषि ने सम्मति सूचक संकेत किया | कुन्ती तन मनसे मपि की सेवा मे जुट गई । छपि फो निवास क्या करना था, न्तो छन्ती के पेच कौ परोक्ता करनी थी । श्रागामी विपत्ति से वाने के लिये उसे क्ट सहिष्णु बनाना था । भरतवंश को श्रतु यनाये रखने के लिये उन्टं तो उपाय रचना था चे भोति भाँति से कुन्ती की परीक्ता लेने लगे । कभी प्रातःकाल ही ` कहते सुमे भूख लगी है, गरमागरम भोजन दो । छन्ती तत्- त्त् तैयार करके देती । कभी फ् जते मै चरभी नदी से स्नान करके श्राता हँ श्रते ही सुमे गरम भोजन मिलना चादिये । छुन्ती भोजन यना कर प्रवीता करती, वे तीसरे पहर तक. नहीं शाते ! जवर ऊुन्ती निराश दोकर चौका उठा देती तो उसी समय प्राकर कदते “मे श्रभी गरमागरम भोजन दो ।" इन्त" तो सदा सचेष्र रती, बद उसी रण रसोई वनाकर उन्दँ भोजन कराती ! कभी श्राधी रात में ही उठकर चलत देते । कभी दिन भर नदं त्राते। कभी भूठ-मूढ दी अच्छे पदार्थामिं दोप लगाते । इख प्रकार भवि-भोति से दे न्ती के धेय-को देखने लगे । करतु न्ती न तो कभी श्रालस्य करती, न किसी काम मेँ कमी प्रमाद दी करती । वे जव भी, जिस समय भी, जो भी सेवा करने को कदते,उसी समय उसे सावधानी के साथ करती । एेसी सेवा से पत्थर भी पिघल सकता है; फिर दुर्वासा तो ऋषि दीथे। वे असन्न हुए । स'सार मे एक रदित घटना घटी । दुबांसा की
दध महाभारत क प्राण महात्मा कणं
सन्नता बहुत कम देखी गह है, वागुवजर छोढ्ने मे दी शूरवीर हःकिन्तु छन्ती ने ्रपने कौशल से,अपनी निष्कपट सरल संवा से ऋषि को परास्त किया । त्रिकालक्ञ ऋपि ने ऊुन्ती के प्रारब्ध के विषय मँ.विचार फिया । उन्हे पता चत गया कि इसके भावी पति स'तान उत्पन्न करने में असमथ होगि। उनके स' तान न होगी तो भरतवंश का ही नाश दो जायगा । मातो के लिये पुत्र के सुख के दृशैन के समान संघार मेँ चनौर कोई भी सर्वोत्तम सुख नदीं । इसलिये भावी विपत्ति का चिचार करके ऋपि ने इुन्तीके कल्याण का वात सोची । उन्होने छन्ती से कदा--"वरनुहि' मे तुम्हारी सेवसे सन्तुष्ट ह । तुम कोई मनोलुकूल बर मांग लो। न्ती नेकदा-भ्रभो ! आप मेरे उपर सन्तुष्ट ह चौर मेरे पिता सुपर प्रसन्न ह, इससे बढ़कर शौर वर क्या होगा । अप की कृपा वनी रहे यदी सव से बदा वर है ॥ दुर्वासा के वार-वार कहने पर भी जब कुन्ती ने कोद बर न मोगा तव उन्हनि स्वय दी कुन्ती को लाकर कटा--धविटी ! म अव जाना चाहता हू । जाते समय सँ तुमं छ प्रसाद् देना चाहता ह। देखो.यह अथर्ववेद का मंत्र है। जव तुम्हे आवश्यकता हो शरोर स तान की कामना हो तव इस मंन को पद्कर तुम जिस देवता का आहान करोगी; इस म कै प्रभाव से वही देवता ्राकर तुम्हारी मनोकामना पूं करेगा शरीर तुम्हारे ग्म॑ स्थापित करेगा। उसी क अ्रसाद से तु पतर पराति हो सकेगी । । ।
ऋषि ने विधिपूर्वकं कुन्ती को स्नान मंज भदान " र ओर वे इच्छानुसार चलो गये । कुन्ती न उस भत्र के सम्बन्ध मे सोचती रही । ` ५ । | --ः- `
फणं का जन्म तिगमांयुल्ां तेजसा मोधयित्वा योगेना विश्यात्म संस्थां चकार | न सैवं दूषयामास भानः सथां लेभे भूय एमाय बाला ॥ ४
„ जन्म श्रीर् सृतयु का भैमट जीव के साथ तव तक लगा रहता ह अव्र तके उसका मक्त नदीं दोता । जीव भी उच्च योनि मे जाता दै, फभी नीच योनि भें! गुण भी बन्धन का कारण है दुग भी, धर्मं भौ वन्धन दै धमं भी । घ्म का वंघन सुवणं को जंजीर दै, अधमं के व्॑धन को लोह पाश कह सकते दं ।यद जन्म मृत्यु का बन्धन तो श्री कृष्ण चरणे के जाने पर दी खुल सकना है । ऋषि, देवता, मतुप्य सभी चंधन मे दं । सभी काम करो के अधीन द} जिसने काम कोध को जीत लिया, जिसका मोह-ममत्व मिट गगरा उसी का मोदा है, नदीं तो देवताभी चन्न म ह । उन्दँ भी मान श्रपमान, अपने पराये का बन्धन द| वे भी सुख मे सुखी श्रौर इख मेँ दुखी होते देखे गये हे । भगवान ही कृपा करके जिसके बन्धन को काटना चाहु वदी हस चौरासी के चक्कर से चयूट सकता है; नदीं सो, घड़ी कठिन श खलला है । वड़ा दुह् वधन है ।
कुमारी छन्ती को महरि दुवांसा का मत्र मिल गया । उसके भन मेँ विचारो का ववडर उतपन्न हो गया । महर्षि ते मंत्र विया हे, क्या वह् सत्य होगा † देवलोक से देवता कैसे आते देगि १
भरभगवान दि्षाकर ने श्रपने तेज से कमारी छन्ती के यीगयुक दो केर उनमें गर्भाधान किवा । सूय' भगवान ने उनका कमारीपन नष्ट नदी किया कुन्ती भिर गयो कौत्वोंक्न्या हौ गई |
३६ महाभास्त के प्राण पद्वात्मा फण
उनका स्वरूप कैसा होता दोगा १ उनसे वाते कमे की जानी ड! ग्म क्या, शिशु कैसे पैदादोता है? एसे श्रनेकों विचार उसके मन मे उठने लगे | उसके लिग् यद मत्र श्रदटूमभुन ~ वस्तु थी। दिन रात्रि वद् इसी के स्वध मे सोती रती । एक दिन उसने ऋछतु स्नान क्रिया । उत्क मसितप्कमेवे ही संत्रकी वतिं घूम रदी थी । रह रह कर उसे मंत्र के सत्य दोन के सम्ब मे संदेह होने लगा । सदसा उसके श्ंगो मेँ एक प्रकार की अकडन सी पैदा हुई । श्रालस्य से वार वार वद ँगड़ाई सी लेने लगी । शरीर मे स्वतः ही रोमांच से होने लगे ! उनके मन मे फिर फिर यदी वात उठने लगो फ देख तो सदी, कैसे देवता अते है| ।
भगवान भुवन भारकर प्राची दिक्िकी श्ररणिमा के गभ॑से ` निकल कर तमोमय जगत को अरलोकित करने लगे । दिनि चुने लगा दिवस ज्यो दी यो चदृता त्यो द तयो न्ती का कुतूहल वढृता जाता था । न गर्मी थौ न बहुत अधिक जाड सुरावाना दिनि था। माघ मास की प्रातः कालीन धूप सुद्र श्रौर शरीर को सुखकर प्रतीत होती थी । शिशिर छतु का आरम्भ था । सातृ- जाविको पुष्पित दोने का वदी सवोश्तम समय होता ह| युलानी धूप श्रतःपुर के ओँगन भ चिटक रही थी । भगवान अंशुमाली मारने कुन्ती की ` मनोवृत्ति पर दंस रहे थे। सहसा छन्ती की दृष्टि चराचर जगत के स्वामी भगवान सूये देव पर पडी । उसने निश्चय किया, “आज म इस मज की सत्यता . ह मे अवश्य ही परीता करू गी । उसने फिर से हाथ ॥ पृथ्वी को लीपा, उस पर् खु दर सा आसन विधाया | आसन् मारकर् बैठ गै । भगवान का स्मरण करे उसने तीन बार अआचमन क्रिया श्नौर ऋषिने ध
जिस प्रकार वत्ताया
करं का जन्म ३७
था उसी विधि के श्रतुसार उसने सूयेदेव का ध्यान करे भगवान सविता करा श्राद्रान किया । क्ण भर मे टी परस- कान्ति युक्त पुरुप रूप मे भगवान द्िरण्यगभे उसे सामने खड़े दर् दृष्ठिगोचर हुए 1 श्मपने सामने सदसा सूय नारायण को देखकर सरला कन्या सकपका गई । वह सदसा श्रासन से उट चड़ हुई । उसकी श्रोंखो के सामने चकाचौरध हो गया । चद िंकरतव्य व्रिमृढ सी चन गड । भगवान भुवन भाक्कर के तेज को सहन न कफे उसने दोनों हाथों से श्रपनी दोनों ओंखिं मींच्ती शौरे वह केले के पत्ते की तरह कांपती हुई खड़ी की खदी ष्टी ग्द गई । भगवान सु्यदेव खदे दी रहे ।
. थोड़ी देर मे उसने साहस फरक श्रं खोतीं शौर शत्यं ललाती हुई भरर हृद बाणी मे धीरे-धीरे बोली- प्रभो ! मेरे श्रपराध परौ त्तमा करे । नाथ ! मेरा भाव दूषित नहीं था । मैने केवल सन्त्र की परीक्ता के ही निमित्त श्रापका श्राह्लान किया था। श्रन्लानवश जो मेनि श्रपनी वाल सुलभ चंचलता के कारण श्मापका जो श्रपराध किया है उसे राप क्तमा करें श्रौर श्राप प्रपते यथेच्छं स्थान फो गमन करे । मेरे मन में को चुर भाव नदीं था। ४
युक्कराते हुए भगवान सूर ने कहा--भँ जानता ह ुम्दारा भाव शुद्ध था। तुमने किसी बुरे भाव से भुमे नदी बुलाया । सुमे .य् मी पता दै कि तुमने कूतूहल बशर वाल सुलभ चपलता के ही कारण ेसा किया है, कितु मेरा आना तो र दोगा यद् सुनकर कुन्ती बहुत डरी । वह थर थर कंपने लभी । इसने शरत्य॑त लज्जा के साथ नीचे देखते हुए धीरे धीरे कातर स्वर मे कदना आरम्भ करिया--द जगत् पते ! दे सिता । हे त्रिलोकेश ! यह श्राप स्या कह रदे हैँ † भगवान्. मे भ्रमी ४
१८ महाभारत क प्राए भदहात्मा करं
कमारी हृ । मेरे अपराध को दमा कीजिये । मेरे धम॒को र्चा कीजिये । सुभे रधम से वचाश्ये ! अँ र्वी प्र सिर टेकरकर आपके चरणो भ प्रणाम करती हू। यह , कहते कहते कुन्ती वेदश होकर प्रथ्वी पर गिर पड़ी श्रौर रोते लगी ¢ ध मरावान सूय ने कहा--'्ेपि ! मँ लौट सकता ह किन्तु इसमे तुम्हारा कल्याण नदीं । एक तो यह् मन्त्र अमोघ दै, मेरे से यह व्यथे हो जायगा । दूसरे यह मेरा वड़ा भारी अपमान भी है । इस समय यदि तुम मेरे भरस्ताव फो स्वीकार नकरोगी तो मँ दुर्वासा को श्चौर ठुम्हारे पिता को शाप दूंगा । अज्ञान मे दी सही, तुमने सुमे बुलाया तो है । तुम सामने देखो, आकाश मे धिमानों पर चदे हुए देवता सुभे देखकर दस रदे दै । अव यदि गँ यँ से रेसे दी अक्रतकायं लौट जाङगा तो वरेभेरे उपर रौर भी दसेगे। श तुम्हे दिन्य दृष्टि देता ह तुम स्वय' देवताश को देख सकोगी.। यह् कहकर भगवान सूयं ने क्ती को दिव्य दृष्टि दी । कुन्ती ने सचमुच देवतां को अतरिदा म हसते हए देखा ।
कुन्ती भ्रव घड़े असम जस मरं पड़ी । वह मारे ललना के गडी
सी ज्ञाती थी । रह.रह.उसे अपने शज्ञान पर प्शात्ताप हो रहा था । व्यर्थं मे चेते
ऋषि के म्र पर अविश्वास किया । युभे अमी से उसके परीदा की क्या अश्र थी 1 उसने त्यन्त ही दीनता से कहा--€ सर्वलोक को आलोक प्रदान करते वाज्ञे देवाधिदेव ! आप धम के सादी है । समस्त धर्म कार्यं पके दी साचित्व में प्राणी करते है । म अरभी कन्या ह क इस अधर्मपूर मस्ताव को कैसे स्वीकार कर
कणं का जन्म ३६
भे भगवान् भुन भास्कर वोले-दिवि ! तुम विश्वास रो, रे प्रसाद से तुम्हारा कन्यापन दूपित न होगा । तुम ज्यो की त्यां कन्या ही वनी रोगी । मेरे आशीवीद् से तुर्दे क भी दोष न लगेगा । तुभ निमय होकर मेरे प्रस्ताव को स्वीकार के । अन्यथा तुम्हारा भला नदीं है । ठु्दारा ही नदीं दगदारे पिता का ओर तुम्हारे मंज दाता छपि का भी अनिष्ट होगा । न्नी ने साचा 'एकमेरे कारण पिताका सवेनाशदहो सकता दवै । भगवान दुरबासा का भी अनिष्ट होगा ¦ ये सूर्य चराचर केस्वामी दहन जाने क्या करे ।" वह् विवश थी, लाचार थी । वह् उठकर अपनी शय्या पर चली गई । मगवान सूयदेव ने उसके शरीर का सश्षं॑किया । बह् अचेत हो गई, -भगवान सूयं के तेज को वह सह नदीं सकी । तव भगवान ने श्रपना तेज कम करिया । छन्ती को गभेधारण करा के भगवान सूय अपने लोक को चते गये । यथा समय गभ॑ के लक्तश इुन्ती के शरीर मे प्रकट दोने लगे । उसे माता-पिता क सामने जाने मे बड़ी लज्जा लगने लगी ¡ उसकी एक अत्यन्त ही विश्वासपात्न धाय थी । उससे उसने सव वाति कद दीं श्नौर यह भी प्रतिज्ञा करा ली क बह किसी से भी इस वात्त को न के । धीरे धीरे गमे वदने लगा। अव कुन्ती ने बाहर निकलना एक दस वन्द कर दिया । वह् छ माता क महलों मे भी अव न जाती । सदा अपने ही मलों मे श्ुपचाप पड़ी रहती । उसकी धाय ते हर तरह से उसकी सेवा की । गर्भोपयोगी जो मी वसत आवश्यक शीं, वे सब उसने जटा दीं । ठीक समय पर बिलङ्कल एकान्त -मं रात्रि के समय कुन्ती ने एक पुत्र रत्न को प्रसव -कियां । वहं मार श्द्धितीय रूप लावस्य युक्तं था । भगवान भुवन मारकर का जैसा ररूप
४० महाभारत के प्राण महात्मा करणं
था,जिस शूप सेवेङ्न्ती केश्रन्तःपुर मे परधारेये, ट वालक ठीक उनके दी प्रतिरूप था । एक श्रपू्वं कान्ति से उसका शरीर चमक रदा था । उसकी श्रवएनीय श्चाभा धी । उसके शरीर पर स्वाभाधिक ही कवच था । वह कानों मेँ दिभ्य कु उल श्रौर दिव्य कवच पहने ही पैदा ह्र था । पैसे शूप लावण्य युक्त तेजस्वी पुत्र को देखकर कुन्ती का हृदय वशं उ्छलने लगा । उसके हृद्य मे मातृत्व प्रेम द्वा गया । बह अनिमेष इष्टि से उस अलौकिक कुमार फे श्दुभुत चानन ऊो निदहारने लगी । उसके पलक गिरते नदीं थे ¦ एक कण क लिये वह संसार फो भूल गड । उपे परतादहीन रदाकरिवह कमारी है चर कुमारी के पुत्र दोना संसार म महान कलंक की वात हे । पुत्रस्नेह ने उसे ेसा श्रचेत वना दरिया कि वहः अपने आपे को भी भूल गह । पुत्र की श्राभा से वह प्रसूति “ गृह जगमगाने लगा । चारो चोर सूर्य जसा प्रकारा छा गया ।
कुच क्ण के पश्चात् उसे शारीर की सुधिःवुधि आई । अपनी परिस्थिति का ध्यान हु । पास म वैदी हुई धाय से उसने भीण स्वर मे वेदना के साथ कदा--श्धाय माँ । व क्या हो {अव हमाराक्या कर्तव्य है
धाय ने का--राजकुमारी ! घवडाश्नो नही; मने सव भरव॑ध कर लिया है । तुम चिन्ता छोड़ दो ! मंगलमय भगवान सब मंग््दी करेगे । इस वातको कोई जानन सकेगा ५ तम्दारे आदेश के अनुसार सब सामान ठीक हे।
कुन्ती ने बढ़े दुख के साथ एक श्राह भरी श्रौर फिर वहं वेदो दो गदे । बच्चा धीरे-धीरे रुदन कर रहा था। संसार गदनद मेसो रहा था; किन्तु जाग रहे थे दो व्यक्ति--एक कुन्ती श्नौर दूसरी उसकी धाय । -
क क 9०
पुत्र का पानी में परतयंग
धन्वा चा प्रमदा यां त्वां पुत्रत्वे रस्पयिष्यति । यरत्यास्वं तुपितः पुत्रत्तन पास्यति देवज ॥ #
विधाता ने माद हृद कैसा पिविज बनाया है । उसमे हतने भावों का समावेश दै । माता अपने पुत्र के लिये कितनी ,वतित रहती दै । माद हृदयम करुणा सोतं उमद़ता रहता है। बह प्ेमसे पूं, दया से सवित श्रौर सेवा से सरावोर होता ह। ,विधाताने कोमल से कोमल भार्वोका संपुट देकर मातृ-्य का निर्मांस फिया दहै । संतान के प्रति माता के हृदय मे कितना ममल होता है । यह सषि प्रसार के तिये अ्रजापति की कैसी शमतुषम कारीगरी है । यदि सन्ध्या-वंदन करने की सोंति संतान- सजन शरोर पुत्र-पालन भी कतेर्य होता, बलात्कार माताश्रो के सिर मढ़ा गया होता.तो आज संसार मे इने गिने रिष जीवित दृष्टिगोचर होते; किन्तु विधाता ने ममता का ेसा एक सूत्र निर्मांस कर दिया है किजिसमे ्रावद्ध होकर पशु-पकी, स्थावर जंगमं श्रपनी सतां को प्राणों से वदकर भी प्यार कते ह । गर्भ धारण ङ भाँति भोति के कष्ट, प्रसव की असह्य बेदना,,
्ालन-ालन का चिक चिरकातीन दुःख इन सव को मां बही,
त्रपते पुत्र को शरश्च नदी में वहाते हृद मां इन्ती ने रोते रेते
कहा था--श्वेय ! पे सूं -नंदन ! वह खी धन्य देगी जो ददे पुत्र
मानकर लालन-पालन करेगी ; मूख लगने पर निनके स्वनो का दुम पानं करोगा [3. । ष
४२ महाभारत क प्राश मदात्मा कणं
प्रसन्नता से सहन करती है शरोर प्रत्येक कस ध्यान रखती दकि मेरी संतान को दुःख न हो । माता जव विवश दो जाती द, जव उसे ससार मे छक मी नहीं सूमता, तव चद् दृदरय पर पर्थर् रखकर अपनी संतान का परित्याग करतौ दहै, मानों उसने श्रपने हृदय को निकाल कर फक दिया दो } श्रव भी वहुधा दा गया है कि हमारी वहुत सी विधवा या कुमारी वहिनं जव किसी दु पुरुप के वहकाने से या किसी श्रन्य कारण से पथ- श्रषटहो जाती दहै तो शक्ति मर वे श्रपने कम को गोप्य रखती हः किन्तु संतान का मुख देखकर वे कितनी दुखी, कितनी ललित चर क्रितनी बिवश हो जाती है ।
ससार शअरंधा है | रुप्य को परचर्चा, परनिन्दा करने मे शत्यं सुख मिलता है । परचर्चा हमे मिश्रा से भी श्रधिक मीठी ओर नवनीत से मी अधिक स्निग्ध प्रतीत होती दै] तभी गे जिनसे श्रना कोद प्रयोजन नदी, उनके विमय भे यात तते करते हम विश्राम नदीं लेते । बिरोपकर बुरादमे तो हमे सधु भी अधिक मिठास श्नाती है| समो कामां मं अच्छाई शौर बुराई दोनो का समावेश रहता है। गुख दोप समान भाव से सवभ साभ्निित है । वृत से पापों से हम लोकापवाद् के भय सं बचे जाते है शौर वहत से पाप हमे ज्लोकापवाद के भय से करने पढ़ते ह । यदि स'सार् इतना परापवाद्प्रिय न हो, यदि अच्छे कामो की प्रशंसा चौर उरे कामों की निन्दा होना वन्द जाय; तो. समाज की "खला ही दूट जाय । इसील्िये दम समाज में रहकर कमी अपने मन की वात्तफोमी नहीं कर सक्ते श्र जिसे करना नही चाहते वहं भी करना पडती है ।
महाराज कुन्तिभोज की कन्या श्रपते पु को देखकर समसत
पुन का पानी भे परिस्याग |
लोकं लाज को भूल गई । उसमे धाय से कहा - कैसा सुन्दर शिशहै।'
धाय ने अन्यमनस्क भाव से कदा--श्टा, है तो सही किन्तु वे रागे क्या करना दोग ¢
(रागे क्या करना दोग ‰ इन शब्दौ हो सुनते दी छन्ती रो पड़ी । नवजात शिश कै क्रंदन मे सँ का रुदन मिलकर वहं महल की चहारदिवारी मे दी विलीन हो गया । सोते हुए संसार को उसका कुदं भी पता न चला}
धीरे-धीरे रान्न ओर भयानक हो गदं । बषां की ऋतु थी । वादलों की गड़गड़ाहट शरीर विजली की चमक से हृदय दहल जता था। छोटी-छोदी वृद पड़ रदी थी । छन्ती ने अपने हृद्य को कड़ा करिया । वह् शिशु को लेकर उठ खदी हृद । धाय मे कहा--राजङ्मासी मैने एकं श्रत्ेत ही योग्य कारीगर से एक मंजूषा-पेटी वनवाई है । इस नवजात शि को इसमे रल कर इसे भाग्य पर छोड दो । जां का ्रारब्ध हेग, वहीं यह बालक स्वत्तः ही पर्व जीयगा । तुम्हारे भाग्य मे दसका सुख नदी वदा है । यद्यपि तुम निरपराघ हे, व्दारा चरित्र शुद्ध है, दुम्दारा कन्यापन नष्ट नदीं हा, फिर भी खमाज तुम्हारे इस कायें को सहन नहीं कर सकता । देवि ¦ बिंब न करो] मन की मलीन को मेट दो । तुम मोह के वशीभूत मत । । हो । पालन क धव के प्सु ह । भाग्य सो जन्म के साथदहीः उत्पन्न होता ह । तुम्दारा यहं जदं भी रदेगा यशसी दोगा । इसे तम माम्य ॐ भरोस छोड' दौ । यदं साधारण म्य की संतान नदीं है । तीनों लोको के स्वाभी भगवान युवन भक्छर् क्या इसकी कुठ भी विता न करेगे ¶ ` र
४४ महाभारत के भाण महात्मा कणं
यह कहते कहते धाय ने एक वहत सुन्दर मंजूपा कुन्ती के सामने रखी । बाहर श्रावण भदो की वपां हो रही थी, भीतर कुन्ती के नेत्रो से निरंतर अश्र, वषँ हो रदी थी । विलखते हए छन्ती ने उस मंजूषा को देखा । वहं एक अत्यन्त सुन्दर मूल्यवान लकड़ी की बनाई गई^थी । वह् नौका ॐ आकार की!इस ढंग से बनाई गई थ कि फितना भी आंधी-तूफान आवे वह् किसी प्रकार, भी जल मेँ इव नीं सकती थी । उसमें इस प्रकार की जालिया लगाई गई थींकिवायु का संचार तो उसमे यथेष्ट हो, किन्तु -जल्ञ का एक विन् भी उसके भीतर न जा सके । वह रेसे बहुमूल्य मसह से पोती गह थी कि करीं भी उसमे छिद्र नदीं था, न उस कदी से पानी प्रवेश करने की संभावना थी 1 वह बच्चे के शरीर की अपेक्ता कुछ अधिक लस्वी थी । उसका प्राकार मद्यली के समान था । इधर-उधर उसमे पंख भी थे जो पानी को चीर सक श्रौर ओंधौ तूफान मे उल्षट न सके । उस सु्दर पिटारी को देखकर कुन्ती रो पड़ी । अत्यन्त सुलायम बहुत दी सुकोमल मखमल की गदी शरुन्ती ने उसमें विदाई । चारो ओर मनोहर मुलायम तक्रिए उसने उसमें रखे । वच्चे को उसमे लिटाया श्रौर धाय के सिर पर रखकर उसके कंषे पर हाथ रखकर घोर निशीथ के समय घनघोर घटाय के वीच महान अंधकार मे वह् अतःपुर से वाहर हुई । नगर से थोड़ी दूर एक छोटी सी अश्व नदी थो । धाय के साथ कुन्तो उस नदौ के किनारे प्च गह । वहो जाकर धायं ने उस संजूषा को रख दिया । माता ने देखा--उसका नवजात शिशु गहरी नीद मेसो रया है । माता का हृदय बिदीं होने लगा; उसते पिटरीमें से बालक को फिर एक वार निकाला । स्तनो भर से खतः ही
दूध की धारा बह् री थी । माता ने वच्चे फो हृद्य से विपरा
पुल का पानो मे परित्याग ४
लिया । वशो माना फे स्तन पाने करने लना । उसने सू भर पेद दू षी लिया । वही उसका मारे लरनो का श्तिम पयपाने धा षु्तौक्रयफटासारदाथा। लोक तलाक भव ` स प् श्रपने दय कैः टकर फा सदाके क्ते परित्याग कर रही धी | इसने वन को फिरसे पिटारी मे घुल दिया। परसे. फृलापे फो लपेट द्विया ) मंजुपा के उपर मंगलमय स्वस्तिक के च्छि बनाये । दरया, शक्त, दधि, कुंकुम श्रादि मंगल वसतये उमम र्य शी । एक प्र्तिम-स्तन मे दृध भी रख दिवा । नदी काजलवेगसेव् राया, पनती फे श्र, प्रवादि के जल ने उसे पौर मी पेगवाला प्रना द्विया धा । जल के भीतर् धस कर कंपते ह्ये द्धो से मोन उपर मंजूपाको जल मे रख रिया श्रौ रानीनोती वलौ वेदा ! जाश, मुभ श्रमागिन के पुण्य लीरा हो गये दं । दयाय ! हमने देसी राकस माँ के गभं से क्यों जन्म लिया जो दुर ्रपने हाथों से जान धमकर कलि कै ालम फक रही दै । उस भाग्यवती स्ीका कल सुप्रीत होगा, ।जसकी कोच को तुम हरी-भरी करोगे । सचमुच वह भाग्यबनी नारी देगी जो तुस पत्र कहकर पालन करेगी । दुमहारे पिता भगवान भुवन माकर तुम्हारा मंगल कर । समसत दविशाये' वुमारी रचा करे । जल के अरधिष्ठाद् देव भगवान वरुण पुर सव प्रकार के सको से ववां । जारो वेदा, जारो । मेरे लाडिते लाल ! किसी वड्भागिनी मा को पुजवती वनाशन; किसी माम्यवान पुरुप ऊ हे को दराभ। यद् कहते कते माता ने रस मजूणा को चोड दिया । जल के प्रबाह् मे वह् सुन्दर हलकी सं दूकची वहने लगी; उसके साथ ही भू्धित होकर कुन्ती भी जल मे फिसतं गै । घडी कठिनता से धाय ने उसे पकड़ कर जल से बाहर क्या ।
४६ महाभारत क प्राय मदात्मा कणं
जव तकं बह म जूपा दीखती रही तव तक धाय श्मौर कुन्ती वहीं बैटी'रदीं । जव वह् ओँल से श्रोमल दो गई तो दौर्नो व्यँ से चली आई । इन्त का शरीर महल मे लोट आया किन्त उसका मन तो उस म जूषा क साथ नदी की दिलों मँ चपेटा खाता हुत्रा रागे वहा जा रहा था।
६ ष्टरि न्निति ठव हत विनश्यति। नवथनायोऽपिवेने रितः एतप्रयकोऽपि गदे विनश्यति 14 मतुप्व पद पीने के माध द्री श्रपने मोग साथ कर श्राता १1 य् बान श्रदारथाःस्त्य द करि श्रत के दाते.दाने पर नल फ कर-कण प्र् युद दाप लगी हू) जिस वस्तु पर ज्िमिका नाम लिम्वा दै, बद् उसे श्रवश्य प्रप्र होगी; श्रौ नी निम॒की नदी द, जिन्नफे भाग्य में बह नहीं लिखी ` व्र उन धरयत्न करने परः भी प्रप्र नदीं हो सकती। परुष कः भाग्य फो कोट जान नटीं सकता इसीक्तिये हम प्रयत्न कर्ते स्टतेष्। चदि मलुप्य फो भाग्य का पता लग जाय ना यष प्रयसे दी करयो करे ? यह् अगत भे मेरा-तेय, हाय- दाय, सुट-मार, लड़ाङमगडा स्यो दहो? संसार के समस्त प्रयल भाग्य क न्नानके ही कारण हो रहे है। जिन ऋषियों कौ मृच्मन्नानके द्राय भाग्य के रहस्य फा पता चल गथा है चिर पता चल गया ष्रैकियह शरीर देव वश दै, जव तक चलना होमा श्रवश्य चलेगा; जो भोग प्रप्र होने होगे बे अवश्य प्राप दंगे ध्यद्स्मदरीयं॑ नदितत् परेषाम" बे कोई इच्छा से ‹ कमं नहीं करते; वे प्रारच्ध कर्मा के भरोसे निश्चेष्ट वैठे रहते
क्श्माग्य जिसकी रक्रा करता ६ वह ग्ररक्वित भी रक्त दै; परन्तु भाग्य का मारा श्रच्छी तरह रचनित दोन पर भी विनष्ट हो जति ह । तरतः जंगल मे दोदर हा श्रसहाय भी प्राणधारण करता है, पर घर मे अच्छी तरद पाला-पौसा मी वच नहीं सकता
म, €. ण महाभारत के प्राणं महात्मा केण
द । चिता शौर पिरमय यद् अज्ञान के काय द । जो पाए होना है ्रवश्य प्रा होगा । इसलिये किसी वसतु के मिलने पर हम विस्मय क्यो करे † जो नदीं प्रप्र दोना दै, लाख प्रथतन करने पर् भी न प्राप्त होगा; उसकी चिता निरथं है | भाग्य सब को धुमा रहा है शरीर सतिमन्द पुरुप संसारी व्यापारो मे चिन्ता विस्य करके व्यथं दी दुख मोल ते रदा दै। .
कुन्ती पते लादिले लाल को, अपने हदय के इकडे को, अपने अलो के तारे को, अपने प्यारे नवजात सुकुमार शिशु को नदी मे छोड कर लौट आ । बह छोटी नदी थी, उसका नाम अश्व था। बालक उस नदी मे बहने लगा । वायु चलुङ्कूल थी, दैव ॐी गति जानी नहीं जाती । वह नदी महानदी चंबल म जाकर मिलती है; अव शिशु की पिटारी बहती-बहती च॑ंबल नदीम आ गई । इटावा के पास चंबल नदी आकर श्रीयसुना जी में मिलती है, अतः चंबल के प्रवाह के साथ वह श्रीयमुना जी मै आ गई श्रौर यञुनाजी के साथ वह भी प्रयाग की च्रोर वदी । तीथेराज प्रयाग मे आकर श्रीयसुना जी गंगाजी मे मिल जाती है; अतः अव वह म'जूषा शिशु को लेकर काशी की ओर वहने लगी । उसके साथ न कोई मल्लाद था; न पथग्रदशंक व्यक्ति। भाग्य उसे स्वयं ही बहाकर ले जारहाथा। काशीपुरी पाटलयपुद्य आदि राज्यों की सीमा को पार करती हृ गंगाजी ॐ प्रवाह के साथ वहं म'जूषा बिना किसी रुकावट के श्रागे बदी चली जा रही थी। आगे चल- कर बह छरंग देश की सीमा में पर्ची । अव मानों उसकी यान्न समाप्त होगी ।,दैवयोगं से उसी समय चंपा नगरी
प्धिरथ फो पुत्र प्राप्नि ४६
केः राजा श्मभिर्य श्रपनी पत्ती साथा रौर श्रपते सेवको ॐ साय रंगा स्नान करने श्राये । उन्दोनि दूर से परक सुन्द्र सी परौीकोजादवी फी नेयो के माथ कडा फरते देखा। शमम पारः परे बदटुत दर तक उमकी शरोर देखते रदे । चरत भ उन्देनि श्रपने सेवर फ श्रान्ना दी - श्लामने यद् जो मंजुपा वनी नारी ष उसे पकटु कर लाश्रो, देखे इसमे क्या चीनेषु? । श्नासा पति री कु मल्ला नौका लेकर गये श्रौर भट से उस परक लाये शरीर राजा धिर फो लाकर उसे दिया। प्रतिरथ ते उसे देण्वा । उसकी प्रसन्नता का वारापार नहीं र्दा । उनमें षः नवजात सुकुमार शिशु था । वद् वाल सूय की भनि उमे मंजु फ़ आ्रालोकित कररदा था। वालके कै. भोते-भाने मुर स्वरूप का देखकर पजा अवाक रद् गया श्रीर् घरदुी दैर तक उमक श्रदूसुत श्रानन को निहारता रहा । स्वाभाविक फवच करंडल धारण किये उस अरलीकिक वालक ने साजा पर् जादू सा फर दिया । श्रधिरथ प्ननपत्य था । उसके कोई सन्तान नदं धी । उन्दनि श्रपनी पत्नी राधा को उस वे को दिया । रेसे देवतुल्य वालक को पाकर राधा का रोम-रोम परफुल्लित हो उढा । राथा के अव तक कोई सन्तान नदीं थी | मावृ-युख से बह चव तक वंचित दी थी । उस श्रवुपम रिष को देखकर उसका मा-भाव उमड़ श्राया शरीर स्वतः ही उसके सतनो से दूध की धारा वहने जगी । राधा ने ट से ्रपना स्तन वालक कै मुख मे दे दिया । बालक दो दिनि का भूरा श्रा} स्तन पाते ही फट से बह दृध पीने लगा । माता निहाल ह गई । ्रधिरथ ने सदस गौश्ों का दान दिया, बराहर्णो से स्वस्तिवाचन कराया । चाये शरोर तुरदी, नगाड़ा, भेरी यजने
+ ४ ‰०© महाभारत क प्राण मह्यत्मा कण
ली । समस्त नगर म च्रानन्द् छा गया । सवत्र -उत्सव की धूम मच गै । अधिरथ ने उसे पना सगा पुत्र दी समम । राधा उसे अपने उद्रजात पुत्र कौ दी भांति पालन करने लगी!
वह जन्म से दी वसु-सुबणं के कुण्डलो के सित उन्न हआ था, अतः माता-पिता ओर ब्राह्मणो ने उसका नाम चदुप रखा । धीरे-धीरे वालक बदृते लगा ओर श्रषनी तोतली वोती से माता-पिता को सुखी करने लगा । भाग्यवन् जहाँ जाते दै, बहँ अम्युदय दी होता हे । अव तक्र राजा अधिरथ अनपत्य थे, उनके कोई भी संतान नहीं थी । कणौ के आति दही उनके शौर मी कर पुत्र हुए । चंग देश मे सवत्र मंगल छा गया । कंणं के शरीर मे जो दिव्य-कवच श्चौर दिन्य-करुण्डल थे पे अलौकिक, च्रगृतमय भे । ये कुण्डल भगवान सूये को अपनी माता अदिति से मिले थे । सूर्य देव ने पुत्र-स्ेहवश बे दोनो चीजे कणे को गभमे ही प्रदानकी थीं । कणे उन्हं पिने ही पैदा हुए थे । उनमें से सदा अमृत टपकतां रहता था । जव तक कवेच-ङुरुडल उनके शरीर पर वने रदते, संसार मे उन्दँ कोह मार नदीं सकता था नीर न पराजित दी क्र सकता था । उन दोनों वस्तुश्मो से कणं की च्दूभुत शोमा थी ।,
जब कणे कु बड़े हुए-तो महाराज अधिरथ को उनकी शिक्ञा की चिन्ता हई । च्यंग देश इर जागत देश ऊ आधीन या । महाराज धृतराष्ट्र से अधिरथ की सी थी, अतः उन्दने अपनी पत्नी से सम्पति करके कणं को अब्र विदा सौखने ऊ लिए हस्तिनापुर म भेज दिया । .दस्िनाएुर के समीप जहाँ बहत से राजङकमार अखे विद्या सौखते थे, कण भी बहौ अलञ- शो का अभ्यास करने लगे । बह स्वभाव से ही शूरवीर
[१ [2 = =+ ~~ ~ --- --~----~ ~
प्रधिस्य फो पु प्रापि ५१
१ € स या, उफी पद्ध चिल शी । उसका वरण गार था, छाती म 1. ६०५७ [न ४ [+ [ नौरी थी, श्रि विश्नाल थी, चाल मे मस्ती थी । उसके कषे
, ष फीनर्ह भरे हृष थे । वद् स्प-लावस्य मेँ देवताश्रों के तुल्य था) रुणो मेभी उस समान कोद नहीं था। वह
सथरित्र, दानी, त्राध्रग-मततप्रौर सूर्यं का उपासक था। यह सथ दने पर भीष उसके प्रतिकरूल था। उसके गुणो के प्रकट टेनि कास्थान उपयुक्तः नदी मिला दैव की गति को कौन श्रन्यथा करने में समथ दो सक्ता
कणं का कौशल
युद्ध शौणडो मदहाबाहूनित्यो्त शरासन : । केशरीवद्वने नदन मातङ्ग इव यूथपान् ।% (्धो० प० १८०,२५)
माता पिता दोनों मे पिता की श्रपेक्ता सन्तान के भ्रति माता का प्रेम ्रधिक होता है । पुत्रभलेदी कुपुत्र हो लाय, चिन्तु माता प्रायः कुमाता नदीं होती । कुन्ती अपने प्यारे पुत्र को जल म बहाकर शान्त नदीं हद । उसने त्यन्त दी गुप्त रीति से अपने विश्वासपात्र गुप्रचरों हारा इस वात का प्रता लगा लिया कि उसका पुत्र एक राज घराने में है भ्रौर उसका पालन- पोषण राजकुमार की भोति होरहाह। माता को इस वात से बड़ा खंतोप हु । इधर सहाराज कुन्तिभोज ते जव श्रपनी चन्या कुन्ती को विवाह-योग्य देखा तो उसका रवयंबर रचने का निश्चय शिया । देश-देशान्तरो मे यह समाचार भेव्या गया कि भरी अद्वितीय रूप-लावस्य युक्त कन्या का स्वयंवर है। राजसभा मे मेरी कन्या जिस राजकुमार के गलते म जयमाला डलेगी उसी कै खाथ मँ श्रपनी कन्या का विवाह कर गा ¢
भी ईष्ण कहत ईह-- “महाबाहु कणं कमी युद्ध से चिुख नही होता । नित्य ही धनुषवाण ताने वन मे सिंह की तरह धूमा करता है । चह श्रपनी दहाड़ से श्रपने शनुग्नो को उसी तरह भयभीत शरौर
विमदेन करता है जैसे वनराज हाथियों के मन्ड का मान-मर्दन करता हे । >
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फर का श्रस फौशल ५३
म समाचार को सुनकर देश-देशान्तरो के राजकुमार शाने ले | भरतवंश सत्रिया सै श्रत्यन्त श्रेष्ट माना जत्ता है । चन्दर वंशम मदाराज भरत ब्रह ही प्रतापी शूरवीर श्रौर चक्रवतीं सम्राट् थ । वे महाराज दुप्यन्त के पीयं से महारानी शकुन्तला फेर से उतपन्न हण ये । उन्दी के नाम से पुरूवंश को भरत- चश कते ट । महाराज भरत के प्रपौत्र हस्ती हुए, जिन्दोने हस्तिनापुर नगर वसाया । हस्ति-वंश मे दस महाराज शान्तु दुष; उनके गंगा के गभं से सत्यत्रत भीष्म उतपन्न हुए । च्मपने पिताी दाशयज की कन्या सत्यवती से ववाह करने की इच्छा जानकर मीष्स ने श्राजन्म व्रह्मचारी रहने की भीष्म- प्रतिना की | मद्टाराज शान्तनु के वीयं से सत्यवती के चिव्राद्वद् शौर चिचित्रवीयं ये दो पुर हए । विन्राङ्गद घालक- पन मँ ही एक गन्धर्वं के हाथ से मारे गये । विचि्रघीय ऋ चिबाह मीप्म ने काशिराज की श्रस्विका श्रीर श्रम्बालिक्राके साथ कराया । प्िचित्रवीयः के कोई सन्तान नदीं हुई । श्रस्यन्त भोग-चिलास में श्रासक्त शेते के कारण वे त्रकालमें ही काल- कवलित हुए । वंश का नाश देखकर माता सत्यवती ने भीष्मं से श्रौ न्य चिद्रान ब्राह्मणो से सम्मति करके कन्या- वस्था भ उतमन्न हुए अपने पुत्र भगवान व्यास से शाख की रीति क श्रनुसार विचित्रवीय की रानिर्यो के पुत्र उतपन्न । कराये .1 ्रम्विका से जन्पान्ध धृतराष्ट्र का जन्म हा; श्म्बालिका से पाड चनौर दासी से प्रम नीतिज्ञ िदुर जी उत्यनन हए ¡ जन्मान्ध दने कै कारण धृतराष्ट्र राजगदी के श्रथिकारी न दोकर पड़ दी राजसिदासन पर वैठे । स्वयंवर भँ इन्ती ते महाराज पाड छो पति रूप मे वरण किया . अतः ॥ 1 ।
४ महाभारत के प्राण महात्मा कसं
छन्ती का.विवाह हस्तिनापुर के महारा पाड के साथ हता । महाराज पाड क। दुसरा विवाहे सद्रदेशके राजाकरी म्री नाम्नी कन्था के साथ हुता । महाराज पांडने मृगया के समय भूल मे श्रपनी पत्नी श्गी के गभाधान करते समेय एकत मृग को श्रपने वाण से मार दिया । वास्तव मे बे ऋषि थे श्रौर म्रगरूपमे गमाधान कर रदेथे। उन्दने महा- सज को कुपित होकर शाप दिया कि तुम भी जव च्रपनी पत्नी भे गभधान करोगे तो बुम्हारी भी मृत्यु दो जायगी । इस कारण महाराज ड साम्य होने पर भी सन्तान उतयन्नेन कर सके । वे पने जन्मान्ध. भाई पृत्तराष्टर को राज्य पाद सप कर श्रपनी दोनों रानिर्योके साथ वने चले गये । वयँ बे अरस्यवासी सुनियों के साथ वानप्रस्थ जीवन् व्यतीते करने लगे! वदीं दन्ती ते दुर्वासा के सन्तर बल से धर्म,वायु ओर इनद्रको लाकर उनसे युधिष्ठर, भीमसेन चीर अजु ये, तीन पु उत्त कराये । पाड के . कदने पर अश्िनीङुमारो को दुकाकर माही कै भी नङ्कल सहदेवे ये दो पुत्र डतन्न कराये । दैवयोग से महाराज पाड सवगेवासी हुए । स्री उनके साथ सतती हो गरं । छन्ती अपे पावें पुनो को लेकर हस्तिनापुर आ गई । भीष्मपितामह् उन
वच्चो का बही सावधानी से लालन-पाल्न कराने लगे इधर
महाराज. धृतराष्ट्र का विवाह भी गांधार देश के महाराज की पुत्री गांधारी -से शरा । बद देसी पतिता थी कि अपने पति
को अन्धा जान कर सद अपनी आंखो पर_ पट बोँये रहती
^ । भगवान व्यास की छपा से उनके, मी १०० पुत्र उलमन्त' हए । उनमे दुर्योधन सब से. बड़ाःथा ा
चनौर दुः सब शछोदे थे} एक दुःशला इत्या भी -थी, ६ ब
कणे का श्रघ् कौशल ५५
मौतरीर देश फे राजा जयद्रथ के साथ हा । ये १०५ पुत्र भोप्मपितामह की देख-रेख में शिता पाने लगे । पितामह ने कूपाचाय को श्रपने चहँ रखा था । उनकी वदिन कृषी का विवद् द्रएाचाय क साथ हृश्ा । पदिज्ते कृपाचायः ही सव रानकुमा्ा को शिक्ञा देते भ्र, किन्तु पितामह चाहते थे कोई बहुन चोग्व श्राचायः मिलें तो इन वालको को समस्त धरुरवेद की उभ रिक्ता दिला जाय ।
कृपाचायः के व्रहनोई प्रोणएाचायः विद्वान होकर भी निर्धन थ! छो के गभं से उनके अश्वत्थामा नामकाशकपुत्रमी धा। श्रन्य शपि वालकं फो दूध पीते देखकर उसने भी श्रपनी माना से दूध मगा । दरस पर माता ने उसे आटा घोल्कर मफेद् पानो द्र वताकर दे द्विया । मालूम पड्ने पर वालक बहुत रोया । उमके पिता द्रोराचायः धन की इच्छा से अपने सहपाठी बाल्यकाल के मित्र पांचाल देश के राजा के रहौ गये 1 उसने इनका तिरस्कार किया । उस अपमान का वरदृला लेने के लिये ये दैवयोग से हस्तिनापुर आगये । भीष्म पितामह ने इन्दर ब्र सत्कार से रखा शरीर सव राजङ्माे को ्रतुवेदं की शिचा देने के लिये इन्द दी श्राचायं निथुक्त करिया । द्रोणाचार्यः उस समय धसुर्वेद मेँ श्रद्वितीय थे । उनकी वरावरी सव श्रल-शतस्ं ॐ वेत्ता परशुराम जी फो द्वोडकर कोह नहीं कर सकता धा । धूृतराष्ट् न्नर पांड के पुत्रौ कोतोवे शिका देते थे कितु चनौर भीश्चनेक देशों के राजछमार इनके पास अध्ययन कएने श्रते थे । इन्टने रपे शिष्यो से प्रतिक्ञाकरलीथी कि पदटृकर तुम लोग गुरुदकिणा म ममे पाञ्चाल देश के राजा दरूपद कों वंध कर ला दोगे । इनके शिष्यं ने एेसादही किया श्नौर - इस तर, से द्रोणचायं नें द्रपद से अपने
५६ महाभारत के प्राण महात्मा फणं
च्रपमान का वदला ते किया । द्रुपद ने भौ यन्न करक एक रेका पुत्र उत्पन्न कराया जो द्रण की मारन चाला हा ।
॥ मयुष्य में यह स्वाभाविक कमजोरी है फि जिस पर उसका -ममत्व हो जाता दै, उसको प्रसन्न करने फे किये वह् उचित अतुचित सभी काम कर डालता दै । यद् कमनोरी यदध-वड् लोगं मँ देखी गई दै । द्रोखाचा्यं के पास कौरव, पांडव, कण, तथा श्ंषकदृष्णि-वंश के श्रन्यान्य बहुत से राजङमार शिक्ञा पाते थे, किन्तु उनका अधिक सेह अनन के प्रति धा। अजुन की शूरवीरता, हस्तलाघवता, गुर-शुश्न पा श्लाघनीय धी। उसने आचायः से एकं दिन एकान्त मे कहा-'गुरो । मेरी देसी इच्छा है किं भै संसारम सर्वश्रेष्ठं धुधारी घनूं । आपके आकशीवौद से ही मेरी यह शरभिलापा पूरं हो सकती है ! आचाय ने कदा-विटा, फेला दी दोगा । मेँ तुम्दारी गुरुभक्ति से अत्यन्त हो सन्तुष्ट ह आचायः ने यह् श्राशी.- वोद दी नदीं दिया, किन्तु उन्होने भरसक इस वात का प्रयत्न मी फिया । वे एकान्त भँ अजन को धनुरवैद-शाख के उन गुप ओर गूढ रदस्य को भी समफाते थे, जिन वातं को सव नदी सममः सकते थे । अजन को संसार विजयी होने के लिये द्रोणचायं` ने एक बड़ा दी च्नुचित कार्यः भी किया । निषादो के राजा हिरख्यधनु का पुज राजङ्कमार एकलव्य एक दिन द्रोणाचायः क समीप भ्र्ञ-विया सीखने ॐ लिये आया । उसने प्राथना.की--शुरो ! मेने चाप को अपना गुरु मान लिया हे; आप यमे अख-विद्ा सिखा दे / `
आचाय ने कदा-भभैया, सुमे सिखाने मे तो फोई आपत्ति नदी थी चिन्तु ये राजछुमार तुमसे देष करने लगे नौर
फणं का शरस कौशल ५७
४१
दित्य-रन्रौ के श्रधिकारी प्रायः छली चत्रिय ही होते ह!" यदय तो परोएाचाय ने ठीक ही किया, किन्तु रागे उस चालक के साध ग्कर धड़ा ही पर्तपातःपृणं व्यवहार किया । एकलल्य यहु उत्तर सुनकर पने गुरु को प्रणाम करके चला गया। उसकी लगन सच्ची थी । दय मेद श्रतुराग था श्रौर श्रू श्रद्धा थी उसने द्रोराचायः की एक मद्री की मूर्ति नाई । उसे ही द्रोणाचार्य मान कर उसी की पजा करता श्रौर उसी कीश्राप्ना तेकर वह जंगल में श्रकेला दी वाण चलाने का अभ्यासे फरमे लगा । श्रद्धा ही तो फलवती होती है । भाव हरी तो सिद्धि का कारण दै । उसकी सच्ची निष्ठा सफल हु । ` वह श्रपनी गुर-भक्तिके कारण संसार मै श्रद्ितीय धलुधारी श्रा । उसकी टफए का दूरा की भी ठीक लद वेधनेवाला उस समय संसार में नदीं था । एकदिन कौरव रौर पांडव शिकार खेलने जंगल में गये । उनके साथ एककुत्ता मी था। ` जंगल भे जदा वषये, मेले च पदिने निषाद् राजकुमार वास - चलाने का प्नभ्यास कर रदा था । उसके एसे रूप को देखकर कुत्ता भूकने लगा । स पर.एकलव्य ने उसके मुख को ल्य करके ७ वाण टीकर उसके युख मेँ इस प्रकार मारे कि कुत्ते का मुख भर गया, लिससे उसका भूकना तो बन्द हो गया, किन्तु उसे कोई चति नहीं हुई । कुत्ता व्याकुल दोकर राजकुमाो के पास गया । कुत्ते की देसी दशा देखकर बे आश्चयं से चक्ति होगये । यह श्रदूमुत वाण-कौशल किस व्यति ने किया । ते के साशर-साथ बे उस वीर लुधांरी की खोज मे चते । एकलव्य ॐ पास पहंवकर ` कुमारो ने उससे सव दाल पूषा । उसने कुमारो ! मँ निषादराज का प ह्र द्रोणाचायं
न ४५ भप महाभारत के प्राण महात्मा कण
का शिष्य हं । यदय एकान्त मे वाण चलाने का श्रभ्यास॒ कर रहा ह! श्रजँन ने श्रपने मन मे सोच।, तना कौशल, रेखा दस्तलाथव, इस भोति का लचय-तान युममें नी द । एकलन्य के रहते हुये सार मेँ मँ श्द्धितीय घनुधर कथा नहीं हो सकता ॥ उन्न श्रपनी यह् चिता श्राचाथ ४ सम्युख प्रकट करते हुए कदा--ाचायदेव ! प्रापने तो कदा था कि संसार मे तुम दी अद्ितीय शूरवीर होगे, किन्तु श्रापका शिष्य ,एकलव्य तो मुमसे भी वदु-चद् के दै । मे उतकी वरावरी कभी नही कर सकता † आचाय ने कदा--नीं मैया, एकलव्य मेरा कोई शिष्य नहीं है, न मैने कभी उसे कु सिखाया ही हे ।
अजन ने हठ पूर्वक कशा-भं इस वात को कैसे मान ! वह् निषादराज हिख्यधनु का पुत्र है । हमरे पूह्ने पर उसने अपने को द्रोणाचार्य का ही शिष्य वताया था!
आचाय को अव ध्यान आ गया, उन्न कहा -तुम सुमे अमीउसके पास जे चलो । श्र्ुन के साथ च्राचायें उस जंगल म गये जदं एकलम्य निरन्तर धनुप चलाने का अभ्यास कर रहा था। श्राचायं फो श्राति देख उसने धनुष- बाण रख दिया च्रौर चरणो मे पड़कर उन्द प्रणाम किया । विधिवत् उनकी पूजा की ओर दीनता से उने कटा शर्व । मै आपका शिष्य ह, आपका कोन सा प्रिय काय ्रोणचायं ने कहा--यदि तुम मेरे शिष्य शो, तो ममे गुरुदक्षिणा दो । मै.आज तुमसे गुरुदक्तिणा तेने आया ह ।
-्त्यन्त ही प्रसन्नतां के साथ एकलव्य ने का--शुरुदेव !
कसं का श्र कौशल ६
भेर प्रस सौभाग्य ट । मरा तन, न.न श्रौर सवसव श्रापेके चरो ७ ्ै। संसारम एसी कोर वु नदीं जो प्रापे किये शरदेव दौ । श्राप शाला करे, मे कौन सी श्ापी संवा फर् ?"
त द्रेसायाय ने कटा-प्यदि तुम सत्य प्रतिज्ञ हो पौर मे देना चालते हो तो भषने दाहिने हथ का गू सुकेदा।
, एकलन्य ने उसी तेण पक तेज शख से श्रना दाहिना छमा कार कर शुर फे चरण म रखा । इससे ्रन की चिना दर हुई । इस प्रकार प्क श्रतुचित काय करे ्रोणाचायं ने श्रपने प्रिव सिष्य श्र्जुन की इच्छा पूरं फी । एकलन्य ने फिर श्रगूढे कै धिना ठैगलियों से दी वाण चलाने फा अभ्यास किया, गरि्तु श्वर ब्रह वात नदीं रही । वास चयोढने मे श्रगूटा ही तो प्रधान साधन टै।
सतयत हुपेय भौ दन ्रोएाचायं के यँ धतुवद पदे धे । किमी भी राजक्कमार का इनकी शरोर ध्यान नदीं था। भे एकान्त भे शते र श्रौ प्रोाचारय के पास आकर पद् जातेथे। शरभी तक कुरुवंशीय राजास के साय इनकी श्रधिकं घनि- ना नदीं थी.किनतु विचा भँ शरपते साथी विद्याधियें से खामा- विकर ही प्रतिधा रोती दै । पदृने मे जो विद्याथी अपने से तेज शेता द, मेधावी विवारथी उससे प्रतिरपधां रखते दै श्रौर भर सक दस वात का प्रयतत करते ह कि यह हमसे वदने न पावे । कभी कमी तो इस प्रतिखधां मै कढ़बाहट भी श्राजाती ट तौर श्॑त भे वही अरतिसधा देप ओर शत्रुता का सूप धारण कर लेती है । कर जन्मजात वीर थे । उन शरभ्यास की उतनी च्रावश्यकता नदीं थी । अजन शरभ्यास के वल पर गुर की छपा
€ ६ महामारत के प्राणं मदात्मा कणं
से वीर वने थे। इससे उन्द अपनी वीरता पर श्रभिमात भी था । वे सव के सामने अपने को श्रेष्ठ सममते । इससे कण मन ही मन अजुन से प्रतिस्पधां रखने लगे । उनकी यह श्मांत- रिक अभिलापा हो गई कि भँ सव के सामने श्रजुन को परास्त कर ! अपनी यह् इच्छा उन्दने किसी पर प्रकट नदीं की, किन्तु जव मी वे अर्जुन को देखते तभी उनके मन म यह् भाव उठता छ्रौर दिन रात्रि इसी विपय पर सोचते रहते । कौरव स्वभाव से दही पाडर्वो से देप करते ये । उन्दोनि पाडर्वो को मारने के लिये भांति भांति के प्रयत्न किये । किन्तु पांडव वीर थे, दैव उनके अनुकूल था । कौरवो के सव प्रयत्न विफल हो गये । वे पांड्वों का बाल भी वाक न कर सके। जव सव राजङकमार शित्ता समाप्त कर चुके तच द्रोणाचाय मे पने शिर्यो का सव को कलाकौशल दिखलाना चाहा । च्ाचाय के लिये इससे अधिक प्रसन्नता की वात क्वा हो सकती है कि उनके विद्यार्थी सब के सामने गौरवान्वित हौ नौर वड़े लोगों क प्रशंसाके पात्र बले । वे पितामह भीष्मे सामने अपनी शिका का परदशेन करके उन दिखाना चाहते थे कि सेने राज- ङमारो के साथ क्रितना परिश्रम किया है । एकं दिनि उन्होनि अपनी यद इच्छा पितामह भीष्म तथा धृतराष्ट्र ॐ सामने प्रकट की | पितामह इस प्रस्ताव को सुनकर बडे प्रसन्न हये रौर उन्दने परीक्ता की एक तिथि नियुक्तकर् दी । उनकी आज्ञाके अमुसार बड़े भारी रंग मंच की रचना होने लमी । महीनों पिले से मोति-भंति से तैयारियां आरंम इई । राजमारो क सनता का बारापार नदीं रहा । क्ण ने भी इसे ही अजन को परास्त करने का अच्छा अवसर सममा, किन्तु उन्होने अपना
फणं फा श्रख कौशल ६१
प्मभिप्राय रप्र ही रखा, किसी के सामने उसे प्रकट नदीं किया । दे परीका मे उत्तीण होना चाहते थे । सव के सामने वे शुन फो नीचा दिखाना चाहते थे, किन्तु देव उनके श्रसुङूल नहीं था चे श्मजुन फो नीया ने दिखाकर स्वयः ही लज्जित हए श्रौर उसी दविनिसे वैर की जीव पट् ग भाई भाद एक दसरेकेसूनके प्यास रन गये । थह बैर उतना बद् गया किश्र॑त मे भरने ङे रादु टी समाप्त दर्रा ।
१ = ५४ £ रगमूमि भ ङश ब्रह्मस्य सत्यवादी च तपस्वी नियतव्रतः 1
रिपुष्वपि दयावान तस्मात् कणो व्रःस्मृतः ॥% | द्धो° पर १ ८०।२४)
वियारथियों क लिये परीक्षा कैसी कुतूहल फी वस्तु दै । जिन्हेनि कभी परीक्ता दी हो उन्दं स्वय' अतुभव दोगा कि परीका के समय हृदय मेँ कैसे-कैसे माव उटते द । जिन्हे पाल्य-बस्तु विधिवन् उपरिथत नदीं होती, जो पद्मे मे कमजोर होते है, उनके - लिये तो परीक्ता एक भय की वस्तु होती दै, किन्तु जिन्दँ पदाथ उपस्थित हों, सव ऊ सामने परीक्ञा देने का ्रवसर होतो उस ह्वात्र का हृदय मारे प्रसन्नता के विं उद्लता रहता ₹ै। प्रीक्ञा देते समय हृदय मेँ जैसा गौरव, जैसी उत्सुकता, जैसा उल्लास होता है वैसा छार्नो फो भी नहीं होता । यह् उल्लास प्रथम परीका म दी सव से अधिक होता है।
आज कौरव राजङकुमासो की परीक्ञा का दिन है । रंगमंच बहुत सी बहुमूल्य वस्तुश्रों से सजाया गया है । वहत वडे मैदान भ खुब विर्दृत श्नीर एकसी जगह मे अरखकौशल दिखाने का पंडाल बनाया गया है । कारीगो ने उसमे भोति-भोँति की कारी-
8 श्रीकृष्ण कदते ईै--भहावीर कणं ब्रा्मण-भक्त, सत्यवादी, तपस्वी श्रोर नियतत्रती है, वे शशरो पर भी सदा दया करते ह इसीलिये उनका एक नाम शषः भी है |
॥
रंगभूमिमें फर ६ गनीकीदु) समस्त जनतां शी राजकुमारो के कौशल देखने फे लिये श्रासंभित किया गया दहै । सव लोगों फे चैठने फे सिये पथक् पथ प्रव्रध हुं | प्क शरोर राजधराने क लोगों के बेठमे केलिये रथान है, दूसरी श्रोर रानिया श्रौर राजकृमारियो के वैठते का
रवय ्। पंडित श्रर त्राघ्मणा के लिवे प्रथक् त्रासन है । साधा- ग्ण जनता फे लिये दृसरी शरोर व्यवस्था है एके श्रोर सेना र्यी दैः वृ शरोर बाजे वजाने बालो का जमाव है । इस प्रकार रेगन्थली में जो लिस योग्य ट समीके धेठने का यथोचित प्रचेय फिया गया दै । चंदी-चौडी सु'दर सङ्के यनाई गै दै, जिनमें सुरगोधिन जलं दिका गया दै । श्रगर शौर धूष के धुर ये सभी स्थान स्यि मय वना हुत दै । बंदनवार, ध्वजा-पता- "प्र्छाङी शोमा मे पंडाल मूर्तिमान उत्सव ही द्रिखाह पडता है। य्या ममय लोगों की भीड़ रजकमारों के कलाकौशल फो देखने कर ज्ये श्रानि लमी। सभी अपने-पमे स्थानों पर आआश्राकर मरैठने लगे । वह सभा मंडप इतना विशाल था कि असंख्य आद्- मिर्यो की भीड उसमें इसी प्रकार समाती जाती जैसे शरस ख्यो नदी समुद्र मे विलीन होती जाती दं । महाराज धृतराण्ट् की आनना से महामसि चिम ने उसे इतने परिश्रम से वनवाथा था व वर्क उनका शामाको देखकर दी ग्ध हो रहे थे । यथासमय महाराज धृतराष्ड् पितामह भीष्म के पीछे परी िद्ुर के कथे पर
, हाथ रच हण सभा मंडप में आरये । उपस्थित जनता के जय \ जयकार के कोलाहल से श्राकाश फटने लगा । गगनभेदी आवाज से दिशाय जने लमीं । महारानी गोँधारीं सी कुन्ती को साथ ज्तकर समा मंडप मेँ बेठ गई । सच राजकुमार भी यथा स्थान् च्रपते च्रपने श्रासनों पर श्रासीन हुए । सव से अन्त में श्ाचायं द्रो ने ऋ्रपने पुतन के साथ समा संडपमें प्रवेश किया । यचि
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[4 & ६ महाभारत के प्राण मह(त्मा कण
वे वृदे थे, उनकी दादौ च्रीरसिर के वाल दंस के समान खेत थे, फिर भी वे देखने भे युवा मालुम पडते थे ! वे शुभ्रवख पदिने थे । सफेद चंदन श्रौर सफेद माला से वे पुष्पित वेला के वृ के समान दिखाई देते ये । उनके आते दी सव लोग श्पने-पमपने आसनो से उठकर खड़े दो गये । आचायं ने सच का यथोचित सन्मान किया चनौर सवको श्रपने-खपने स्थानों पर वैठने की श्तु मति दी । सव लोगो के वैठ जाने पर श्राचायः की श्याज्ञासे समी राजङ्कमार अपना च्रपना कौशल दिखाने लगे ! उस समय राजकुमार प्रसन्नता से परिपूर थे । उनका चेरा श्रानंद् से दमक रहा था । कवच कुन्ल परिने, मुङ्कट धारण कयि श्रौर नाना अख-शख्ों से सुसञ्जित वालसिंह् की तरह वे हजारो राजकुमार वड़े ही भले मालूम पडते थे । दशेक वडेदी उल्लास के साथ एकटक उनके कौशलो को देख रहे थे । सवने अपने श्पने कर्तव्य दिखाये । जिसका जिससे जोड़ा था, उसने उसके साय प्रतिस्पर्धा क्री । दुर्योधन च्रौर भीम का गदा युद्ध हुता । खेली खेल मे दोनों उत्तेजित हो उठे श्रौर एक दूसरे का प्राणए हरण करने की इच्छा से यथाथ युद्ध करने लगे । इस पर आचायः की आज्ञा से उनके पुत्र अश्वत्थामा ने उन्दरं चुडा दिया । सवसे चंत मे अजन ने अपना कौशल दिखाया । अजुन की हस्तलाघवता, कायेडुरलता चनौर दिज्याखं की शिक्षा को देखकर सभी लोग संतु से हयो गये । उन्दोने भां ति-भोँति से दिव्यासो ॐ कर्तव्यो से जनता को आञ्चयं के सागर मँ निमग्न कर दिया । समी लोग चारो शोर से 'धन्य-धन्यः, श्रौर (जय-जयः करने लगे । अजन की जय हो" इस शब्द से दिशा गूजने लगीं । अपने प्रतिसपधी की प्रशंसा सुनकर अब कणं से न रहा गया उसने रंगभूमि के द्वार पर तरकर जोरो से ताल ठोकी नोर अपने
रंगभूमि मे करं ६
हाथों से भुला को फटकारा । उसके पेते मय॑ क शब्द् को सनकन सभी क्तोग चौक पद । सभी ने श्राश्चय' चकित दि से दारं शी शनोर् देखा । सामने से उर धुपवाण रिय हए गक चिगालकाय गौरवं चीर शाता हृ्रा दिखाई दिया । उमे शारीर पर स्वाभाविक कवच धा। कोनो भे श्रमृतमय दिञ्य रल थे। सुजा" मोट धी । शरीर गठीला था । युवा- ब्याफेमद से वह् चृरथा। उठती हु जवानी फी मस्ती उसके चेरे पर छाई हुई धी । उसकी चाल सिह के समान थी । चारी दधाती से यह् सचत पवेत की भाँति दिखाई देता था। गमी मनमेषटनौ मूनि को देखकर सभी स्तव्य हो गये। जो श्रपने रासन से उना चादते येः बे भी डटकर वड गये | १. ~ च्म व्रीर पुरुपमेश्रातेदही साधारण रीति से द्रोणाचायं छरौर् कृपाचायः को प्रणाम फिया श्नौर बिना किसी के प्रश्नकी प्रतीचा विये दी उसने श्रुन को लदेय करके कहना श्रारंभ किया । वह् बरोला--“धनुपथायो मँ शरे ्रजुंन ! तुम श्रपना श्र कौशल दिखाकर बद प्रसन्न दयो रहे हो । ठुम समते हो, तुमने वड़ा भारी काम क्रिया, वहत दी ्नदूमुत-अदूभुत चम- स्र दिखाये, चिनु इनमे तुमने कौन पी बडाई की । ये तो साधारण काय द । तुम को तो अभी सव के सामनेदीर्म द्नसे ब्रदफर कौशल दिखा सकता हू । एसा तुम सात जन्म मेँ भी नहीं कर सकते 1” माता कुन्ती ने दिन्व कवच क्रुर्डल पिन श्रपने कालीन यु फो पिवान किया । श्राज युवावस्था मँ इस वीर वेष से श्रपने लाडिले लेते पुत्र को देखकर कुन्ती का हृदय वांसं उद्धलने लगा । उसके रोम रोम से प्रसन्नता फूटी पडती धी । क्षण भर मे उसे बे सव वाते स्मरण दो राई जिस समय उसने
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६६ महामारत के प्राण महात्मा कणं
ल्लोकापवाद के भय से श्रपने पुत्रको पानीमें प्रवाहित कर दिया था । कुन्ती सन-दी-मन प्रसन्न हो रदी थी । उसकी दष्ट क के सुन्दर सुख कीश्रोर दी लगी हुई शरी । वह् निर्निमेष भाव से अपने पुत्र के श्रनुपम रूप का दोन नेत्रो दसा पान कर रही थी।
कणं को इस गर्वाक्ति को सुनकर अजुन ्राश्चयः चकित दो गये । दुर्योधन की प्रसन्नता का ठिकाना नदीं रहा । भीडमें कुतूहल छा गया । एक स्वर से समी ने चिल्लाकर कदा~"दिखा- इये, दिखाद्ये; हम आपके अख कौशल को देखना चाहते द । कणं ने वड़ी गंभीरता पूवक चारों न्रोर देखा चौर फिर हाथ जोड़कर द्रोणएाचायः से वोले--“आचाय देव ! क्या श्रापकी ज्ञा है कि मँ उपस्थित जनता की दच्छा पृं कं १ क्वा अपने दो चार दाथ दिखा ¢
आचाय द्रोण ने कदा“ वेटा, वड़ा प्रसन्नता स दिखाच्मो । रंगभूमि ह दी इसील्यि । तुम भीतो मेरे शिष्य ही हो 1
आचार्यः को चाज्ञा पाकर कणं ने वे सभी काय जो अय॑न ने श्रमी दिखाये थे बड़ी सरलता के साथ सवके सामने करक दिखा दिये । उनकी हस्तलाघवता चओरौर पूर्ती अर्जन से भी वडकर थी । अजुन ने जो जो कलाकौशल दिखाये ये वे तो उन्टनि दिखाये दी; साथ दी वहत से एेसे काय' भी दिखाये जो अजुन ने नदी दिखाये थे। उपस्थित जनता कणं के इस अखकौशल को देखकर आश्चय चकित होगे । बह कण की प्रशंसा करने लगी। दुर्योधन को तो मानो अपार निधि मिल गई । जल्दी से उठकर उसने करणं को गलते लगाया ओर अत्यन्त ही पेम भरकर करते हृष उसने का-“धन्य धन्य, वीरवर ! मेरा परम सोभाम्य जो आप
रंगभूमि मे कणं ६७
पधारे | श्रापकी जा भो उच्छा शे, मे उसे पृं करटंगा । श्राप निस अभिप्राय स यदं श्राय दा, उसे मे चतादइये । मै अपने प्राणो की श्राति देकर भा उसे पूरा करूंगा । मेरा समस्त राज्य समसल कौप, पृरी सना शरोर १०० भारय सहित मेँ श्रापके श्रधीन ह । श्राप इस राव्य कफे स्वामी हं। मै ्रापका ह| सुमे सपना दितंषी, भित्र, भाई, कंकर श्रौर श्रधीन समभि ।
कण न दुर्याधन क्रा सम्मान करते हुए कदा--राजन् ! एसी यातश्चाप मुंह सं कभी न निकलें । मँ ्रापका दास ह श्राप सुमत स्नेद् करते दै, यदह मेया परम सौभाग्य दै , में श्रापकी कृपा के ्रतिरिक्तश्रार छु ॒नदीं चाहता । आ्ापका मेरे उपर सने्ट वना रदे, यदी मेरे लिये सेव ङु है । सुमे धन, राञ्य, वैमव श्रौर संसारी ख इद्ध भी नदीं चाषे । . यदा मे किसी प्रलाभन स नदीं राया मेरी एक मत्र
दा छर्जनसेद्रंद युद्धकसने की । में अज्ञन को परास्त
करना चाहता ह ।
मदावाहा कणं ! तुम श्रजुन को परास्त कर सकते थे किन्तु तुम तो देवताश्रो द्वारा ठे गये । ्रजुन को तुमने युद्ध म भते दी परास्तनक्रिया हो; किन्तु अज्ञुन के पिता देवराज इन्द्र कोतो तुमने श्रपनी दानशीलता से परास्त कर ही दिया।
---०-:&@--
कणं फो अगदेय फा राञ्य
यद्॑ फाल्गुनो युद्धे नाराचा येद् मिच्छु त । तस्मादेपोऽङ्क विपये मयाराज्येऽभिपिच्वते ।1# . ( च्रा० प० १३८३६ )
मनुष्य स्वभाव में जँ दया, क्षमा, प्रेम शरीर परोपकार आदि की सदूवृत्ति्याँ दे, वह उसमे करता भी दै । जिनसे अपना स्वाभाविक वैर हयौता है, उनका निष्ट दो, उनका अपमान हो, तो इमे श्रान्तरिक प्रसन्नता होती है । इसके विप- . रीत अपने विपन्ती की उन्नतिः प्रशंसा सुनकर हृदय मे एक भकार की जलन होती है । मनुष्य चाहता ह सेरी ही उन्नति हो, सव लोग मेरी दी वात मानें, मेरे ही प्रक्तमे र, मेरीदी प्रशंसा दो ! जो मेरी इस इच्छा पूर्ति. वाधक है, वह मेरा शत्रु है । मनस्वी लोगों के हृदय मे ये भाव स्वाभाविक दते द । बीतरामी महात्मागण इसके अपवाद भी होते ह, किन्तु बहूत कम । वद़-वद़े लोगों मे भी ये भाव न्यूनाधिक रूप मं पाये जाते दै ।
भरी समा भें कण द्वारा अपमानित होने पर धनुधेर अर्जन कोष ओर लज्जा के कारण क्रोधित सप की भाँति फुफकार छोड़ने लगा । उसे समस्त संसार सूना सा प्रतीत होने लगा ।
1 भटर्योषन ने छृपाचाय' से कडा--“्यदि यह ब्रज्ुन राजा के री
साग युद्ध करना चाहता दै तमे कणं को श्रंगदेश के राज्य पर श्रमिषिक्त करता हू |'
कं फो गदेरा का राज्य ` ६६
त् भर पिले बद् पने को संसार मे सश्र शूरवीर माने वरंठा था। उसके श्राचाय ने भी सव ङे सामने यही वातकी
भ ्
भी कि.श्र्ुन संसार मँ सवेश्र्ठ शूर है । दूसरे दी ण वह प्रपभानित् हुश्रा । सवे लोग कणं की प्रशंसा करने लगे । प्रतः यद् कणं फौ उलदी-सीधी सुनाने लगा । ऽसने क्रोधित होकर फदा--^त् कौन नीच पुरुप दै { विना बुलाये तू इस राजङुमारों कौ सभा मेँ क्यों प्राया ? तुमे किसने बुलाया था ¶ श्नाजं म सव के सामने ही तुमे यमपुर प्हुचाता ह । तू. अपने छो शूरवीर, धनुधारी श्रौर श्रत बिया मे इशल सममता दै) किन्तु मेरे सामने तू ङ भी नहीं दै। च्रभी तू हस लोकसे विदा टता ह ॥
कृं ने कौर्थो फे वीच मे खद होकर गंभीर वाणी से सव को सनाते हए कहना ्रारंभ किया - शरन ! दुम व्यथे ही वहत वड्-वड़ रे हो । तुम जो इ कद रहे हो, राजद्रेप के च्नीभूत होकर क् रदे ह । यद उत्सव निजी नदीं था । इसमे किसी कौ श्रानि की नादी नदीं थी । सवे साधारणको निमंनित किया गया था । इससे यह उत्सव सावेजनिक है । को मी इस उत्सव मेँ रा सकता दै शरीर श्राचायं की. आज्ञा से श्रपना श्रल्ञ कौशल दिखा सकता दै । मनि मयोदा का उल्लंघन नही किया । मेनि समस्त जनता की सम्मति से, -च्ाचाय द्रोण की श्राज्ञा लेकर अरपनाच्रखे कौशल दिखार्या है । {रषीर बहुत यड़बद़ति नदी, वे कतव्य करके दिखाते है । यदि तुमे दिम्मत दो तो श्राजा, मेरे साथ दन्द युद्ध कर फिर देस कौन किसे यमपुर भजता है । सव के सामने अभी तुमे मेँ मारकर नकद तोमेरानाम करौ नदीं ।
कर की देसी सत्यगर्मक्त सुनकर श्रञुन उसी.तर कोधित
ॐ महाभारत ॐ प्राण महात्मा कणे
इ जैसेपैर पठने पर सै क्रोधित हो उठता दै। उसने अपना लगोंट कसकर बोधा, शख को ठीक सम्दाला श्रौर प्रोणाचाये के पैर चूकर उनकी आज्ञा लेकर वह् ्रपने आसन से नीचे उतर या शौर रंगभूमि मे आकर वाल ठोककर खड़ा हो गया । अत्यंत कोध के साथ ओठ को चबति हए उसमे कटा - राजा; यँ हर् तरह से तैयार द । व् जैसा चाहे वैसे मुमतसे युद्ध कर ले । मैँ दन्द युद्ध करने को तेयाररहू॥ ४ कणं को तो यह् अ्रभीष्ट ही था । उसे तो सुदमांगा वरदान
मिलत गया । उसकी भरसन्नता का ठिकाना नदी रद्य । उसने दुर्योधन से आज्ञा मोगी । धृतराष्ट्र के सव पुत्रो ने बड़ उल्लास
उसे गलते लगाकर, विजय की माला पदिनाकर स्वस्तिवाचन के सहित बिदा किया । दोनों अद्धितीय वीर अरख-शखो से सजे ` हृए दो सिहं के समान दिखाई पडते थे । दोनों का स्वरूप एक सा था। दोनो ही महाबली, क्रोधी, शूरवीर, सत्यप्रतिज्ञ, धमा त्मा चनौर युद्ध विद्या मेँ प्रवीण थे । दशको मे बड़ा कोलाहल मचा । इ लोग कणे की जय हो, इच लोग (रजन की जय हो कह कर चित्लाने लगे । पने पुत्रों का दन्द युद्ध देखने के किये आकाश मेँ इन्द्र श्नौर सूयं भी आ गये । सब के चेहरे पर एक अदुभुत कौतूहल, विस्मय श्रौर जय-पराजय की उत्सु- कता थी । कोड कहता था “अजुन जीत लेगा; कोई कहता अशन इसे कमी भी नदीं जीत सकता । श्रतराष्टु क पुत्र कणे को, उत्सादित कर रदे थे। द्रोणाय, कृपाचायः ओर मीष्म अजुन. की ओर खड़े थे । उस मह्या कोलाहल भे कोई किसी की बात सुनता दीन था।
. इधर खिर मे बेठी हुदै डन्ती का बुरा दाल.था । कं नौर अजुन दोनों ही उसके पुत्र थे । किसी मी उंगली को काटो
कणे को श्रंगदेश का राज्य ७१
वेदना तो सव मे समान ही होगी । ्रपने दोनो पुत्रो को प्राणों की बाजी लगाकर, शत्रु की भांति लने को उद्यत देखकर , इन्ती वेहोश हो गह । बह मूचछित दोकर गिर पडी । विदुर की आज्ञा से दासियो ने उसके ऊपर सुगंधित जल का लिड़काव किया रौर उसे सचेत किया । इन्ती रविकरज्यविमूढ् थी! उसकी समफमे ही नदीं त्राता था तरव क्या कट । किससे कह कर इस युद्ध को रुकवाँ। उसे भरी सभा मे सब बातें कने मे भी लज्जा लगती थी । सव ज्लोग इस युद्ध से चिततित दीख पते थे ¦ किन्तु निवा- स्ण कैसे करे १ कणं लङने को तैयार था । अजुन श्रपना ्रपमान समम रहा था । अव वह् युद्ध से हटता है, तो स्पष्ट . उसकी पराजय है 1 इतने मे ही छृपाचाय को एक युक्ति सूम गह । वे इस युद्ध को टालना चाहते थे । रागे बदृकर उन्होने कणं से कहा--महावीर ! ये श्र्जुन महाराज पांड़ के तीसरे पुत्र ह ! ये राजवंश में उसन्न हुए हैँ । राजपु राजपुत्र से दी हन्द युद्ध करते दै । बे सामान्य लोगों के साथ इन्द युद्ध ` नहीं करते । इम सव वुम्हारा इल, गोत्र श्रौर नाम जानना चाहते हैः । आपके पिता का क्यानाम है? आप किस वंश मे उदयन्न हुए हँ ¢ कर्ण ॐ उपर मानों किंसी ने वजन डाल दिया हो। जातीय अपमान सवसे दुखद होता है । इल दीनता च अधिकं लज्जा-जनक बात समा भे दूसरी कोई नदीं है । कर्णं क पास इन प्रश्नों का उत्तर था तो सही, .. किन्तु वह सव के सामने प्रकट करने योग्य नदीं था। उसमे लज्जा के कारण सिर शुका लिया । एक बार उसने आकाश स्थितं अपने पिता सूर्यदेव की श्रोर देखा
७२ महाभारत के प्राण महात्मा कणं
मौर पिर बिना ऊचु -उत्तर दिये ही, वह् भूमि की छोर देखता इरा ख्डारहा। . . . श दुर्योधन ने देखा--यह तो वनी वनाई वात विगड़नी चाहता ~, ह । उसने कट से उटकर कहा--ृपाचाय ! यद्रि अजुन - राजासे दी लदना चाहता है, तो भै कणे को श्रभी राजा बनाता ह ।› यह् कफर तुरन्त उसने वेद व्राह्मणं की बुलार वहीं रंगभूमि म सुवे छी चौकी प्रर विकर कणं को अंगदेश का राभ्य तिलक कर दिया। कणं भर भे कणं के ऊषर स्वेत छन्न लग गया श्रौर सेवक उसके दोनों छोर चवर डुलाने लगे । वेदज्ञ ब्राह्मणो ने कणं का जय जयकार किया ! दुर्योधन के इस उपकार से कणे एेसा दवा कि च्ंत मे अपने प्राण देकर ही उसने इस ह का प्रत्युपकार किया । गद्-गद् कंठ से कणं ने मरह हु अवा से कदा- कुरुराज ! आज श्रापने सुमे मोल ले लिया । मै सदा के किये आपके हाथो बिक गया । अव वता- ` इये मेँ आपका क्या काय करं १ आप सुकसे इस उपकार के बदलते क्या कराना चाहते है १. म अपने प्राणो की बाजी लगाकर भी मापा प्रिय काये करगा }' | , दुयोधन ने कदा-भिन्र ! मे आपसे गाढ़ी मित्रता' चाहता दं । आप मुमसे सदा सौदा रसै । इसके अतिरिक्त सुमे कू मी नदीं चादिए ! अपने पिता सूर्यः को साची करके ह दुर्योधन से मैत्री निमाने की प्रतिक्ञा की रौर धृतराष्ट् - पुत्रो को आनंदित किया । ॥ इतने भे ही समाचार सुनकर कणं के धर्मपिता वृदे अधिरथ लाठी टेकते हए रंगभूमि भे रा उपस्थित हए । पने पुत्र को उन्हेनि राज्य-सिहासन पर बैठे देखा । उसके दोनों शरोर चवर
कणां ्रंगदेश फा राज्य ५७३
यनरटये । उपर न्येन थला या । मूल्य रत्न-जटित सुट कः पतर घ मुय के समान दिखा दे रषा धा। श्रमिपेकके रः फ तने से उमा तिरं श्रौर मुकुट भीगा श्रा था। श्रपने पिना तेद फर कमं जन्द से आस्न से उठ खड़ा हश्रा। रने शपते भाने सन्तकर के किरीट सदत श्रधिरथ कै चरणो
ग्य दिया । श्त्यननन्नेद् सेकं फा माधा सुःघकर पिताने से द्रानी मे नया लिया। उसफे रोम रोम सिल ष्ठे श्रौर सारे प्रसन्नना फे उनकी श्रो स प्ेमाश्र् वदने लगे ।
भम को प्रच प्रचरा प्रवस्नर मिला। उसने कणंफीर्हसी
उदनि दुष सव श्न नुना दर कना श्रारम्भ किया--श्ररे ! यह् तो मूलयुत्र ह । इसकी फी दिम्मत कि यद् चत्रियों से न्द् युद्ध करे ! कया सुकरं फा थथा गज वालक से लड़ सकता है ! क्या निथार छा वधा निद के सामने खडा हो सकता है ! यज्ञ ढ़ प्रोद्ाम कोक्याकौश्रा जा कर सकता है! कत्ता कभी भेटि मे नद् सकता! देखा ! इस सद् बुद्धि बाले नीच सूत- पुत्र न दुर्दम ! हमसे द्वन्द युद्ध करने चला दै ।
फणं ने सवरकुद्ध छना किन्तु उसने कं भी उत्तर
नहीं द्विया । वद् श्चपने पिता सूय कीश्रोर ददी दृष्टि से दग्वने लगा । दुर्योधन को ये वाते बहत दी श्रसह्य जान पदीं । उसने कदा--भीम ! तू रेतसे वद्-वद् कर वाते र्न फर् सदा ह ? श्रे, कोर प्रौर कदता तो वात भी ठीक थी। ेनद्ारी जसे उत्सि हृद दै, उसे सवके सामने यदं क्या कलाति ष्ट ? कणं राजा दै श्रौर बे राजरसिहासन प्र तुमरे सामने दो बैठे ह । जिनं यह वातन मंजूर हो उनके सिर पर हम पैर रखते दँ शरीर उसे युद्धके क्लिये ललकारते ईं ।
[9.1 2 ४: 2 ॐ 41“ `
ज महाभारत ॐ प्राण महात्मा कणं
इस बात से जनता म बड़ा कोलाहल मच गया । जनता का अधिक शुका कर्ण की दी ओर था। लोग दुर्योधन की भ्रशंसा करने लगे । वहुत से जोग कण के दौशल का षान करने लगे । बात को बहुत वदतो देखकर श्राचायं द्रौण ने कहा--शयव सूयासत का समय हो गया दै । सव कुमार अपना श्रखर कौशल भी दिखा चुके द । अतः अथ म श्राजके इस उत्सव को समापन करता ह ।'
इतना सुनते दी सव ्रपने-अपने श्ासनोसे उठ खड़े हुए । सेवको ने मसाले जला दीं । भीड़ इधर-उधर कई भागो मे वट गईै। सवके मुख पर कणं की वीरताकी ही कहानी थी। सभी ने अनुभव किया कि यदि आज लङ्ाद होती तो निश्वय दी कणे अन को परास्त कर देता । व त्क धभेराज युद्धिष्ठिर को मी यही विश्वास था कि मेरा भाई अजुन संसारम अद्ि- तीय धनुर है । श्राचाये द्वोए भी बार-बार थही कते थे कि श्रु के बरावर ससार मे को शूरवीर नदीं । धर्म॑- राज इन बातों को युन कर प्रसन्न होते । उन्द अपने घोट माई के एेसे बल-पौरूष पर गव॑ था । आज उन्दः विश्वास हो गया कि कणं के आगे अजुन कुल भी नहीं है । स सार मे कसं से बदकर शूरवीर दूसरा कोई ै ही नहीं ॥
युधिष्ठिरस्याच्यभवत् तदा मति- नं कणतुस्योऽस्ति षनुधरः दितौ ॥
कग का परशुराम जी से रघा प्राप्त करना छर विप्रहाय
येन विदपभने नित्व' यदर्थः षट तेऽनिशम् । गु्मभतेन ते पापमूमिर्वकरशसिष्यति || 7 मरीप्रसते मून ते विचेत्सः। पारनिष्यक्ि निरम्य शपगस्छुनराषम | ( शा० १०२।२४,२५ )
प्रपते प्रतिव्र्भी मे जो गुण होति ह वे भी मद्य को श्रख- ग्ने लगते £ श्रौर उमकी श्रातरिक श्रभिलापा होती है किं यह भी गुण फिमी तरह गुममें पराजाय ! जिस कारण से प्रतिस्पथी दृता है. जिन विया मे ब्र निपुर ष स विया फो प्राप्न कटने यो मनुष्य लालायिन रहता दै ।
फर्स >े देखवा--श्र्जुन से श्रौर सव प्रातो मे तो वह वदृचद् कर ट, फिन्तु ज सव श्रम मै शरषट है, जो कमी विफल नदीं जाता,जिसे मराथारण तेज बाला मलुप्य धारण नीं कर सकता, वह् व्रप्मासर उसे पास नहीं है । किसी तरद नद्ाज् भीउसके पास श्राजाय सो समस्त संसार उसे नदीं जीत सफता । उसे इस वात
= 1 २. र] =, ७1 नः
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\ क्नाप्रण् ने कणंको शाप देते हए कदा--^त् नित्य जिससे स्पर्धा रखता श । जिसके लिये रात्रि दिन भरम करता दै, जिस समयत उसे युद्ध करेगा तव तेरे र्य के चक्र को पृर्वौ ग्रस लेगी । प्रथ्वी जव चकर को र लेग उती समय तेरी श्रतावधानी मे तेरा श तेरे सिर फो अलपू्॑क काट लेगा । हे नीच} तर मेरे त्राभम से श्रमी चला जा ।*
७६ महाभारत ऊ प्राण महात्मा कणं
का संदेह था कि आचायः उसे ब्रह्मा देगे । उसे इस वात का विश्वास था छि च्राचा्यं का अजन के प्रति श्रत्यधिक पक्तपात है। अर्जुन से वदृकर् कोई अख विद्या मे निपुण दो जाय इस बात को ्रोणाचायः सहन नदीं कर सकते । फिर भी उनसे प्रार्थना कष, देखे वे क्या उत्तर देते १ नदेगेतो मनादी कर दँगे । अपना बिगड़ता दी क्या दै १ यदी सव वाते सोचकर वह द्रोणाचायः के पास एकान्त भँ गया । आचाय को प्रणाम् करे उसने कहा--“मगवन् ! मेँ एक अत्यन्त ही महत्वपुण, बात -त्ाप्रके सम्मुख निवेदन करना चाहता ह, यदि आप उसे स्वीकार करे तो ?
आचायः ने स्तेह के साथ कहा--“कटो भैया, क्या कहना ह १ वुम्हारी कोई वात गँ टाल थोड़े ही सकता ह 1"
कणं ने अत्यन्त ही विनीत भाव से कदा--““गुरुषर ! आपके ज्लिये सभी शिष्य समान हँ । यह ठीक है #फिजो योग्य शिष्य अथवा पुत्र होता. है उस प्र आचाय का अथवा पिता का च्रौरो की अपेचा अधिक अनुराग होता है । फिर भी आचायः शौर पिता के लिये सभी शिष्य श्रौर पुत्रएक से ही है । प्रार्थना करने .पर गुरुजन अपने आश्रितो की मनोकामना को पूरे करते दी है । मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप सुमे नद्माख् का उपदेश कर । इसके लिये जो जत, अनुष्ठान तपश्चयो राप सुमे बतारवेगे वहीं मै करने को तैयार हँ । सब प्रकारसे मेँ चपकी अज्ञा का पालन करं गा । उसमे तनिक सी. भी चदि न श्राने पवेगी 1» ` ०
आनाय तो चतुर थे । -वे समम गये कि “यहं चरजुन से भतिसपधा रखता ह. रौर उसे ही. हसने के किये ग्रह् सव्र.
कशं का परशराम जी से वरहमास भातत करना श्नौर विग्रशाप ५७
पडयन्ञ रच रहा है । यह जन्म जात वीर है । संसार भे अव भो इसे कोई परास्त नहीं कर सकता । फिर ब्रह्माखे पाकर तो यह् तरेलोक्य भँ श्रजेय हो जायगा । सारा संसार मिलकर भी इसे न जीत सकेगा ।' यही सव सोच सममकर वै उपर से प्रसन्नता प्रकट करते हए वोल्े-शैया, तुम जो कहते हो, बह सच है 1 मेरे लिये तुम सभी शिप्य समान हो। यही नदी, शूर- वीर होने के कारण मेरा तुम्हारे प्रति श्रतुराग भी दै, किन्तु ब्रह्माखे को सव नहीं धारण कर सकते । उसेया तो दुरष॑पं तेज बाले तपस्व ब्राह्मए ही धारण कर सक्ते है या परम पराक्रमी कुलीन चत्रिय ही धारण कर सक्ते द । अतः मै उसे तुं केसे सिखला सक्ता हँ । इसी वात से विवशता है, नहीं तो मेँ सिखाने को तैयार था ।' ४५ ५ ४५ ४ ४५
कणं का चेहरा फक पड गया । भाचाय ने एेसा ममेभेदी प्रहार किया थाकि उसके सामने कणं कुष्ठ उत्तर दे दही नही सकता था । मन दी मन उसे वडी अत्मि-ग्लानि हुई | उसका सिर नीचा हो गया च्रौर लज्जित होकर आचायं को प्रणाम करके बह विना कुं कहै ही वहाँ से चला गथा । उसे रेसा श्नुभव हु कि संसार मे गुणप्रादी लोगों का श्रमाव दहै । समी स्वार्थी, परपात-पूखं रौर शष्यालु ह| फिर भी वरह्माख् प्रप्त करने की उसकी श्रभिलाषा कम ल हुई । प्रसयुत, आचाय क इस उन्तर पाने से वह उत्तरोत्तर वदती गड् । । | मनुष्य जव सव शरोर से हार जाता है, जब उसे चारो चनोर निराशापूं धकार दी अंधकार दिखाई देता है तब बह, सत्य .से भिचलित.दो जाता है.। उस समय वह सोचने लगता. ह कि थोड़ा श्नुचित काय करे भी. असत्य वोलने पर यदि,
च
६ ७८ महामारत ऊ प्राण सहात्मा केशे
म्रा यह कायं सिद्ध हो जाता है तो थोडा-सा असत्य वोलने मेँ क्या हानि है ! उस समय वह सत्य से विचलित दौ जाता है | वह यह नदी समता कि तरसत्य से उपाभित . वस्तु सण भर ॐ दही लिये मन को सुखकर प्रतीत होती है, परिणाम में तो वह् दुखप्रद दी है । विजय सदा सत्य की ही दती दै । कणे ने भी सोचा--यदि ब्रह्माख प्राप करने मे मेरा यदह सूत पुत्र होना ही कंटक है, तो इसे िपाकर मेँ बह्माख क्यो न पत कर तू १ दरोणाचाय' नहीं सिखाते तो न सदी । ्रेषाचाय ने मी जिससे सीखा है, उन मगवान परशुराम की शरणमे मेँ स्यो न चलं ¶ उन महापरक्रमी बराह्मणा को मे अपनी सेवा से सन्तुष्ट करूंगा चौर उनसे ब्रह्मासि प्राप्न कर लंगा ।' यही सोच- कर बह निना किंसी को बताये महेन्द्र पर्व॑त पर भगवान परशुराम के पास चला गया । बँ जाकर उसने परशुराम जी ॐ चरणों भ साष्टांग प्रणाम किया श्रौर बहुत ह बिनीत भाव से बोला--“भगवन् ! मै भृगुवंशी बाह्मण हूँ । श्रापके चरणो मे रह् कर भँ ब्रह्माख्र तथा ्रन्यान्य श्रस्र-शस््रो का ज्ञान प्राप्त करना .चाहता हँ । यदि च्रापकी कृपा हो श्नौर आप मुम योग्य समर तो ्रपने चरणो मे श्माश्रय प्रदान करे ॥ के रूप, तेज, शील, सदाचार श्रौर नम्रता आ्रादि शणो को देखकर भगवान परशुराम अत्यन्त मसन्न हुए । उन्दने उसका गोत्र, प्रवर, शाखा श्रादि सव पुष्कर अपने पास रहने की आहना दे दी । कणं बड़ी सावधानी से वहाँ रहकर परशुराम जी की सेवा करने लगा ! वह किसी भी वात मे तनिक भी भ्माद नहीं करता । हर प्रकार से शुरु की सेवा भे रत रहता । परशुराम जी उसकी सेवा से श्रत्यन्त ही प्रस हृष । चन्दने उसे अयोग, संहार, उपसंहार समेत
कशं का परशुराम जीसे ब्रह्माख प्राप्तकरला नौर विप्रशाप ७६
जघ्याख्र को सिखा दिया । न्रद्माख को पाकर उसे अत्यन्त प्रसन्नता हई 1 छरपनी बाण-चिया को दृद करने के लिये श्नीर संसार मेँ द्वितीय धलुधर वनने के लिये वह् घोर परिश्रम करने लगा । वह् जंगल मे बहुत दूर घोर एकान्त म चला जाता ओर वहाँ वाण-विया का श्रभ्यास करता रहता । इसके इस पराक्रम से परशुराम जी के समीप श्राने वाले यत्त रास, गंधव, रुद्यक शरोर देवता भी विस्मित हो जाते श्रौर उससे तरह तरह की चात करते ! इस कारण उन सव देव ओर उपदेर्वो से उसका मेल-जोल हो गया । उसने परिश्रम तो यथासाभ्य सुव क्रिया, किन्तु भाग्य को कैसे मेट सकता था । दैवी विपत्ति पुरुषा से नहीं हटाई जा सकती । उससे तो भोगने पर दी छुटकारा दोगा । ` हम करना चाहते द कु, होता है छु । इसी का नाम भाग्य-चक्र है । भाग्य-चक्रे पासे क समान है । पासे हमारे हाथ से ही दयूटते द । किन्तु जो दाव हम नदीं चाहते वह्. जाते ह । जिनं चाहते दै, बे नदीं श्रते । इसी तरद् कमे हम . अपनी दद्रियों तथा वुद्धि कौ दी सहायता से करते है । कम करने भे हम स्व॑ से ही दिखाई पडते ह, किन्तु भाग्यवशात श्रौर सेश्रौरदो जाता दहै) जो काम दम सुख की इच्छा से करते ट बही दुख का कारण वन जाता है। इसी से मगवान ने कहा है शहना कमणोगतिः । वलि कव चाहते थे कि वे वोधे जाय । वे निरंतर शुम ही काम कर रहे थे। उनकी! इच्छा न रहने पर भी ब पे गये । हरिश्चन्द्र ने कोई घुर काम नहीं किया था । उनकी इच्छा नहीं थी कि वे श्वपच के घर नौकरी करै"; न्तु यज्ञ करने वाले, दानी, यशस्वी, चक्रवर्तीं होने पर् उन्दः भी डम का दासत्वं करना पड़ा । चृग सो दानी थे। वे सो अपने दान से स्वरम को. जीत लेना चाहते थे ५" उनकी कब
॥
८० महामार के प्रा महात्मा कणं
इच्छा थी कि बे गिरगिट वरे; किन्तु इच्छा न दोने पर भी उन्द् गिरगिट योनि मोगनी पदी । एक नदीं लाख, करोड, असंख्या उदाहरण है । दूर क्यो जाये, हम रोज ही अपने जीवन म॑ देखते हैः कि जो हम करना चाहते ह, वह नदीं होता । जिखकी हमे सखप्न मे मी संभावना नहीं, जिसे हम चाहते नदीं वह् अकस्मात् ही हो जाता है । अनिच्छा होने पर भी हमे मोगना पडता दे । इसे माग्य, इसे प्रारब्ध, दैवगति न क तो जीर क्या कं ! वि कणे एकं दिन पेसे ही अरख्रचला रदे थे । उनके अनजान मं बिना देखे एक बराह्मण के अग्िदोत की गौ का वच्चा उनके वाण से मर गया । कणौ बडे दयालु थे । गौ चौर ब्राहमणो केतवे जनन्य मक्त भरे । ब्राह्मणो के लिये चनौर गौरो की रक्ता के लिये वे अपने प्राणों को मी निच्लावर कर सकतेथे, फिर वे जान वृ कर गौ के वच्चे को करयो मारते † दैवयोग से बाण उस वच्चे के लग गया श्रौर उसका प्राणान्त हो गया । यह् जानकर उन्दं बडा पश्चाताप हृता ओर वे अत्यन्त ही दुखी हो गये । जिन ब्राह्मण की गौ का बह बच्चा था उन्हे जव पता चलता तो वे अत्यन्त ही पित हए । उन्होनि कणं को शाप देते हुए कटारे दुष्ट ने यह बहुत श्रलुचित कायं क्रिया है । इस अपराध कातो यही दंड था कि तुमे मो इसी तरह मार दिया जाता। किन्तु बराह्मण द मँ घलुष बाण॒ धारण नदीं करता । मेँ दुमे शाप देता हं कि जिशषसे तू इतनी लाग डाट रखता है; जिसे परास्त करने के लिये तू सदा प्रयत्न करता रहता है; जिसे तू मारना ' चाहता है वही तुमे रणमूमि मे मार डनलेगा.। घोर युद्ध के समय प्रथ्वी तेरे रथ क पिये फो प्रस लेगी । जैसे सावधानो भे तेने मेरे गौ-वत्स-को मार डाला है, उसी माँति श्रसाबधानी
कण का परशुराम जी से व्रह्मा परापर करना ओर बिप्रशाप ८१
मे तेरा शत्रु तेरा सिर काट इश्तेगा। तू गौ हत्यारा, नीच शरीर पराजित हाने योग्य है । इसी कषभय पू मेरे यीँ से चला जा”
क्स ने व्राह्मण का शाप सुनकर वडा नश्रता से,माति-भति का विनय करके व्राह्मण को प्रसन्न करना चाद । उसने अपनी सावधानी बताई । इकार, लाखं, करोड गौरां के देने का चन द्विया । श्रपना समस्त घन, पेश्वेयं , राज्य-पाट व्राह्मण के चरणों मे समर्पित करना चाहा; किन्तु दैव कौ गति को कौन टा्न सकता है विधाता के वाक्यों को कोन श्नन्यथा कर सकता १ होनह्यर को कौन मेंट सकता दै ¶ जे ब्राह्मण कणध मन्य श्रौर रणाम करने मात्र से दी प्रसन्न होन वाले वताये जाति कसं के भाग्य से नाना प्रकार की स्तुति करने पर भोषे ब्राह्म देवता प्रसन्न नदीं हए । उन्दने श्रत्य॑त ही क्रोध के साथ कहा-“तू मले दी जीवन मर मेरे यहो गिङगिड़ता रहे; भले ही तू यँ नाक रगड्-रगड़ कर मर् जायने जो इच क दिया है, वह अन्यथा नीं होने का। मैने हैसी मे भी कमी भूठ नहं बोला । मेरा शाप नदीं टल सकता । न तँ उसे लोटा ही सकता र, त् चाद यँ वेढा रह या चला जा । अव मुमसे ङु मी मत कहना."
उदास मन से अपने ्राश्रमको लौट ये । छन्द शपते कम पर बदा परचाताप हा । उन्दौने सोच लिया, भाग्य ही वलवान है । मदुष्य का सोचा सव इछ दयो जाता तो संसार म श्नाज कोद भी निधन, रोगी, क चर र ज ८
मकि जन निधनता, रोग, दुख अर च वि जान तपर मेधे भी नती हे न चाहने पर भी युके शाप मिला । अच्छा लैसी परसु की इच्छा । अदि कि ? 1
कं फो परशुराम जी का शाप
यस्मानमिथ्योपचरितो यखलोभादिदत्वया । तस्मदितनते मट् ब्रह्मासत्रं॒॑प्रतिमास्यति ।# (शां० प० २।३०)
नीति का एकं वचन ह, जहाँ चोट लगी होती है, फिर-फिर वहं चोट लगा करती है | जव तक घर में सूच अन्न भरा रहता है, तव तक भूख नहीं लगती । अन्न य हो जाने पर वार-वार मूख लगती है । षिपत्ति के उपर विपत्ति प्रात दै । जव दैव ्रिक्षूल होता है तब सोना पकड़ने पर मिद्री हो जाता है.।
करणं के सम्बन्ध मे मी ठेसा दी हुत्रा । उसने सोचा तो यह था कि श्नपनी शक्ति लगाकर, अपने सम्पू शारीरिक सुखो का त्याग करके, दिन-रात्रि, सर्दी-गमी, सुख-दुख की परवाह न करके वद् श्रपने गुरुदेव फो प्रसन्न कर लेगा । उन्होने किया मी एेसा ही । अपने बहते हये रक्त की भी गुरं सेवा ॐ समय परवा नहीं की, विन्तु उसका परिणाम उलटा ही हुच्मा ! गुरु उनकी एेसी दारुण सेवा से प्रसन्न न होकर क्रुध ही हुए । इन्द्र तो उनके पीठ लगा था । इन्द्र को तो यह् असह्य था कि कणं भेर पुत्र अजुन को युद्धम किसी तरह हरा सङ । देवताओं के राजा होने पर भी इन्द्र नमकनसत्तू बांधकर कणं के
परशुराम जी ने शाप देते हुए कण" से कदा--५र मूढ़ { तूने
अयस के लोम से मुभे. शूठ बोला इसरिये मृत्यु के समय तुभे बरह्मन याद् न रदा । उस शमम् तू मूल जायगा ।५- -
करे को परशुराम जी का शाप ८३
पीले पड़ेथे। वेतो सवेदाक्णं केचि को ही देखते रहते . थे । यदि इन्द्र॒ इतना पक्ञाताप न करते तो ससार में कणं को कौन मार सक्ता था ? उस सूर्यः पुत्र के सामने कौन ठहर सक्ता था ! महेन्द्र पवेत पर जो ङु बटनाये' हुई उसमें सबं इन्द्रका ही-षडयन्तर था । मायावी इन्द्रे ही कणं को शाप दिलवाया } कणं के तिये यही क्या कम बड़ाई की बात हे कि इन्द्र सामने लडकर कणे को परास्त न कर सके । उन्हे परास्त करने के लिये देवराज को लिपाकर, वेश बदल कर, माया का श्ाश्रय लेना पड़ा । इससे उनकी बदनामी ह शौर कणं की स्याति बद् गई ।
करं सदा श्रपने आचायः भगवान परशुराम की सेवा मे सावधान रहते । जहाँ वे जाते, उनके सग जाते । जिस काम से इन्द सुख होता उसे वे करते चौर सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते। परशुराम जी का कणं के उपर चत्याधिक प्रम हो गया। वे उनके परम विश्वासपाच्र शिप्य बन गये । एक दिनि परशुराम जी अपने प्रिय शिष्य कणं के साथ जंगल में धूम रहे थे। निरंतर तपस्या करते-करते उनका शरीर क्षीण होगया था। बे दैवथोग से मागे म थक गये । गर्मी अ्रधिक थी । एक सुन्दर शरदा की सघन शीतल छाया नैवे वैठ गये। अपने परम विश्वास-पात्र स्नेही शिष्य की जंघा पर सिर रखकर वे सो गये ।
इतने ही मे इन्द्रकी प्रेरणासे एक अलक नामका कीड़ा धीरे-धीरे कणं की जंघा मेँ चिपट गया | उसके पैट थे। सम्पूण शरीर में चुभने बाले कटि जैसे बाल थे । स्त मांस का खाने राज्ञा वहं विषधरषटु सीष्ण कीड़ा
[1
४ महाभारत के प्रास महात्मा करं
चुपचाप कणं के रक्त को धीते लगा । उसने अपने राढा पैर कणा के मांस मे गाड़ दिये । कणं को तव मालूम पड़ा जव वह भीभं ति उसी जंघा से चिपट गया । अव कण वड़े शअसमंजस मेँ पदे । कीडे के काटने से उनकी जंघा में असह्य वेदना हो रदी थी। यदि इस समय वे कीड़े को छुडाति है, तो पैर हितने से गुरुदेव जाग उठेगे। उनकी निद्रा मे वित्र पड़ेगा । यह् सेवक-धमं के सवथा विपरीत है । नदीं छुडाता है तो यह् पता नही कव तक चिपटा रहेसा । ङु भी हो, कणं ने गुरुकीमिद्रा को भंग करना नहीं चाहा! उनकी निद्राम आघात न हयो इस कारण वहं समस्त वेदना को वड़े साहस से सहन करते रहे । उख भयंकर पीड़ा को अविचल भाव से चिना जंधा को हिलाये-डुलाये चुपचाप सहते हए वैठे रहे ।
बह् कीड़ा तो दन्द की प्रेरणा से श्राया था । सू रक्त प्रीकर जव वह् मोटा हो गया श्रौर फूल गया तव रक्त जंघा से नीचे वहने बहने लगा । रक्त की शीतलता श्नौर गुल-गुलादट शरीर मे लगते ही भगवान परशुराम जाग उठे। उठते दी उन्होने श्रपने हाथ को पीठ पर लगाया । उनका हाथ रक्त से सन गया। त्यन्त ्राश्वयः चकित होकर परशुरामजी ने पृ्ा- क्यों भाद ¦ यह् रक्त कहाँ से श्राया { मेरा शरीर र्त से अशुद्ध किसने कर दिया ! तुम इसका ठोक ठीक कारण वताश्मो ?
हाथ जोड़ हुए वेदना श्रौर भय से कोंपते हए कण ने , कहा--श्रमो ! यह इस कीड़े की करतूत है १ इसमे मेरा कु भी अपराध नदीं । यद कह कर कणं ने उस = पैर चि भय कर लकं कीड़े को दिखा दिया ।
र्त पीकर मोटे हुए उख काले कीड़े को व्यो हौ कोषय
फणं फो परशुराम जी का शाप ८५
परशुराम जीनेदर्मा त्यो ष्टी प्ट मर फर जमीन मेँ गिर षडा। टमी नमय श्राया फ रासे दिश्राद् पडा | परशुराम जी द पूषन पर उसने वताया--परिते मै एकरस नाम का राचस या । दरार पनामा; मयव्रान शगु कौ पल्ली को मेने दरा था।
दनी
न्धी के शाप से मुभे फीर योनि पराप््टटं । चरन्त मे प्रसन्न होकर उनि याः मीखद्वियायाकि हमारे वैशामें उन परशुराम जी कद्र नुम हम शाप से युक्त जाश्रोगे । इसीलिये प्रान मै उसशापन युदा) भरव में श्रपने निर्दिष्ट स्थान कोजाना दाना टर" चट् कदर श्रौर परशुराम ज को प्रणाम करके वद गेम चमा रया ।
फणं के टन साष्टत से, एसी गुर्भक्ति से, इस प्रकार के त्याग मे एर्श्ुराम जी फो प्रसन्न एना चाद्ये था। किन्तु दव षा गतिको फीन जान सकता द । यद सव तो दृद की मायाथी। भगवान परथ्यगाम जी फ संदेह हृ्मा । कणं की इस सदन- रीलता ने उनके हदय पर वद ्रमाव डाला । बे करेको ठाट कर पृष्टने लगे--"ुम ठीक ठक वताश्रो, कोन दो! ब्राह्मण इतना कष रयिप्णु कमी हो दी नदीं सकता । बह कभी इतनी शरस्य वेदना सदन दौ नदीं कर सकता । य॒ तोच्ननियकादी सादर द । तुम किस जाति मे उदन्न हुये दो
कर्णं पर तो मानौ एक साथ विजली टट षडी। डर के
“ “कारण बह धरधर करँपने लगा । उसने सोचा, “इस कीडे कौ तरद् मेरी मी श्रव मृलयु दोने वाली दै । उसने अत्यंत ही विनीत माव से इरते-डरते कदा--श्रमो ! मेरा च्रपराध चमा हो । ्रम्मात्र सीते क लोम से दी भनि अरस्य बात कदी । मै शद्ध ्राद्यण नदीं ह । ्रदयासी के गम से चत्रिय के वीय से जिस
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८६ महाभारत क प्राण महात्मा कणं
सूत जाति.की उत्ति हुई है उसी सूति जाति मे मेसा जन्म हु. है। मै सूतराज अधिरथ का पुत्र, राधे का तनव राघेय वसुषेण ह। गुर धर्मं पिता का ही होता है, इसीलिये मैने अपने को भ्रगुवंशी कम था । यद्यपि मैने मूठ बोला था । किन्तु ्मापमेरे पिततो है दही!" इतना कहकर कणं चुप हो गया ।
परशुरामजी ने थोडी देर तक गंभीरता पूवैक विचार किया, फिर बोले- “तुमने बहत बड़ा चरपराध किया है । इसके लिये मेँ कुर्द बहुत बडा शाप तो नरी देता; किन्तु ` इतना ही कहता हूं कि पने समान योधा से जब तू युद्ध करेगा ततो शृत्यु के समय श्रत मे तुमे यह श्रख् मूल जायगा । अव तु मेरे यदयं से चला ना। यदोँ भूटठ बोलने बालो का ~ काम नीं 1"
यह् सुनकर कणं के जान में जान चद । प्राण॒ वचे, यही बहुत हुमा । वह् परशुरामजी को प्रणाम करके अपने भाग्य को कोस॒ता हरा हस्तिनापुर में ्रा गया ।
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कृशो का पराक्रम
सिदयैरर चाद्यादिम; शुरवपः समन्ततः । गत्यलदमे जतु सन्दूभिमास शोरितम् ॥# (° १० १८०।२६)
छी वीरता कफो सभा वीर ही जनि सकता । शत्रु की चीरना फो देवकर जो प्रसन्न हो वही यवाये वीर है। कणेएेसे ह्म चीरे भरे तरे उम नमय के बदरु-ट वीरो दाय सम्मानित ये। दस समय नयी परावर करते वाला भारत मे फोई नदीं था। नरी सीरना फी सवत्र स्याति थी । समस्त राजा उनके नाम से दस्तेभरे। उन द्विना जरासन्थ वरदा प्रतापशाली वीर था। उसने हजासें याजार्श्रो श न्दी वना कर कारावास मे डाल रखा था। उसे श्रपने बल का बहा श्रभिमान था। १७ वार उसने यदुवंशियो पर चदा कर । भगवान् कृष्णचन्द्र जी ने उसे १७ वार भगाया भी फिर भी वरह श्रभिमानो बौर चुपचाप नदीं वैटा । उसने हिम्मत नदी दारो । श्रठरदवीं बार लोक-शिक्ता के निमित्त मनुष्य लीला
॥॥
ध
५ जभीङृ्ण कहते ह-- कणं इतना बली है कि मनुष्यो कौ तोः कौन करै, समस्त देवता मक्लकर चारो श्रौर से षर कर इनसे युद्ध करे त हनफे वाणो से घायन होकर उनके शरीर से मांस ककर श्रौर' र कौ धराये भले दी वहने लगे, किन्तु कणं का वालमी वांकानः होगा | इसे वे रण मे जीत दी न.सकेगे
€ ) महाभारत के प्राण मदात्मा कणं
दिखाते हुए भगवान् उससे ठर कर मधुरा छोड़कर भाग गये } इसी से उनका नाम रणछोड़ पड़ा । तव से उसका अभिमान बहुत वद् गया था । उसमे चल मी अपार था । जिसने हजारो राजा को पशुतो की तरट् च्चपने कारावास. में वंद कर स्खा हो, हं साधारण वीर थोड़े दी दो सकता दै । उसकी वीरता का श्ननुमान तो इसी से लगा लेना चादिये कि मगवान ने उसे मारने के लिये हल का आश्रय लिया । उन्दने खष्ट कद् दिया (इससे युद्ध मे कोड पार नदीं पा सकता ॥
जव जरासन्ध ने कर्णं की प्रशंसा सुनी तथ उसने इन्दं न्द् जुद्ध के किये बुलाया । दन्द युद्ध का निसंत्रण पाते दी कणं वड उत्साह से जरासन्ध कौ राजधानी मे गया । दोनो मे घोर युद्ध हृश्मा । दोनो ही समान बलशाली वीर थे । दोनों की युवावस्था थी । दोनों दी च्रपने को पराजित समते थे। न्त मे कणं ने जरासन्ध के उस स्थान पर प्रहार किया जिसे जरा नामकी राच्सी ने जोडा था । उस पर प्रहयर होते दी जरासन्ध कंपते लगा। उसे भतीत होने लगा कि अव उसके शरीर क दो कदे होना चाहते दँ । फट उसने कणं से सन्धि कर ली श्नौर वोला-- '्सचजुच तुम वीर हो मेँ तुम्हारी वीरता से प्रसन्न होकर तुर मालिनी नाम की नगरी देता हूं। पिते कणं अंगदेश की राज- धानी चम्पानगरी के ही राजा थे, श्रव मालिनी के भी राजा इए। इस प्रकार जरासन्ध से सम्मानित होकर वे श्रपते हस्ति- नापुर लौट आये ।
उनकी समस्त राजाश्रं पर घाक थी । एक वार कलिङ्गदेश की राजधानी राजपुर मे वों के राजा की कल्या का स्यंवर था । देश देश के राजे मदाराजे उस स्वयंवर मे आये धे। दुर्योधन मी विवाह की इच्छा से कसं आदि "वीरो को साथ लेकर स्वयंवर में
कणं का पराक्रम ८६
शया ¡ जयमाला लेकर जथ मारी सव राजां को देखती हृदं आगे वदने जमी श्नौर दुर्योधन को भी देखकर जव वह् शरागे चली तो दुर्योधन कोवड़ा कोष श्राया । उसने बलपूवेक कन्या को पकड़ कर एय भं विटा लिया श्रौर सव राजना के देखते ही उसे लेकर चल दिया । इससे सव राजाश्रँ ते अयना वड़ा श्रपमान समा । समी मिलकर दुर्योधन से लते शरीर कन्या को चीनने चले ! यह् देखकर धनुष बाशं लेकर कणं दुर्योधन की रक्ता के लिये खड हृए । समस्तं राजानो ने एक साथ दही कणं पर प्रहार किया । विन्तु वह् वीर तनिक भी विच- लित नहीं हृच्मा । श्रपने तीच श्रौर बोखे वारणो से सभी के वाणो को विफल चना दिया । किसी के रथ की ध्वजा काट दी, किसी कै घोड़ो फो मार दिया, किसी के सारथी का सिर णड से अलग कर दिशा । इस प्रकार सवके वाहनों फो विकृत करके उन्दनि सभी राजान्नं को घायल किया । करे की एेसी अद चातुरी देखकर सभी राजा उरकर संग्राम से भाग शये। दुयोधन सकुशल क्लिगराज की कन्या को साय लेकर हस्तिनापुर आ मया ओर उसमे उससे पिधिवत् विवाहं केर लिया । इस प्रकार कणं की सहायता से दुर्योधन समस्त राजा के सिर पर पैर रख कर कन्या को छीन लाया । कर के ठेस श्रमाुपिक बल फो देखकर -दुर्योधन को विश्वास हो गया कि अव संसार मे मेरा सामना कोई नदीं कर सकला । मै ही संसार मे एक छत्र महाराजा रहगा । मेरा राच्य करं के कारण निष्कंटक रदेगा। बात भी ठीक ही थी । जव तक करं रदे, दुर्योधन का कोई वाल सी बांका नदीं कर सका । तव तक दुर्योधन समस्त राजां से पूजित होकर चक्रवती महा- राज वना रद्य । कणे के धराशायी होते ही उप्रका समस्त
६० ` महामार के प्राण महात्मा कणं
साहस जाता रहा शौर रण॒ छोड़कर कायो की भति भागकर जलमे जाषिपा। कणं स्वय" सम्राट नदीं थे, किन्तु सम्रारों के निमौता थे । वे अद्वितोय वीर भे। उनकी वीरता क सामने मलुष्यो ने ही नहीं देवताच्रों चनौर देवताश के राजा इन्द्रने भी लोहा माना था । उनकी वरावरी करिसी ने की ही नदीं । अकेले ही वे दिग्विजय कर लाये; क्योकि घे साक्तात् सूर्यदेव कै पुत्र थे । दन्य कवच-कुर्डल पने ही वे उत्पन्न हए ये । छन्तु अपनी उदारता से श्रौर इन्द्र के षडयन्ध्र से उन्दोनि श्रपने अस्तमय दन्य कव च_-डर्डल खोकर जीवन दे दिया श्रौर उसके बदल्ेम कभी मी नष्ट न होनेभाला निर्मल यश प्रात ` कर लिया। -
द्रौपदी सयंवर् मे अपमानित
टवा तते द्रौपदी वव्पस्चेजगादनाहं षरयाभिसूतम् ।
सामपहास' ्रपमौद्य यय तत्याज कणु; सुरििधतुस्ततू ॥# (आ० प० १८६२३) घास का धा कालञातर म पुर जाता है । अह्लशदों की चोट समय धाकर् ्रच्छी हो जाती है; किन्तु वाक्वाण से हया धावे कमी पुरता नदीं । वह सदा एक सा वना रहता षै । रपे समान पृरुपो मे अरपमानित होना सब से बड़ा दुःख है| षे वीतरागी, संसार-त्यागी, रागद्वेष से शूल्य महात्मा धन्य दै, जिनं न मान की इच्छा है न श्रपमान की चिन्ता, मानापमान मे जिनके चित्त की पत्ति समान रहती दै; किन्तु समीतो महात्मा नहीं दो सकते । संसारी लोगों फे लिये तो मान ही
सवसे श्रेष्ठ धन दै (मानो हि महतां धनम्! ।
यह तो हम पले ही वता वुके ह कि दुर्योधन पांडव सेसदा जलता था । वह् हर् प्रकार से पांडरवो को मारने पर उतारू था, नतु परजा ॐ भय से शीर धृतराष्ट् के संकोच से वद सुल ऋ स्पष्ट एसा नहीं कर सकता था । अयते मंत्रियों की सम्मति से
¢ द्रौपदी ने जव कण को ल्य भेद करने क लिये उदयत देखा
तौ उने सदे होकर जोर से कहा घरतपूत ॐ साय विषाद नदी
-करूगी ।' ्रौपदी कौ वति शुनक्घर क्रोध से सूखी छी हस कर भगवान्
सूय की श्रोर देखते हुए उस तेजस्वी धटुष फो का ने षषवी पर रखे दिया ।
९२ महाभारत ॐ प्राण महात्मा कं
उसने अपते राज्यकी सीमा पर वारणावत नगरमे 1 गृह निर्माण कराया । वहं घर लाख, सन, घी, तैल, मोम एेसी शीघ्र जलनेवाली वस्तुच्रां से बनवाया गया था । उसकी इच्छा थी कि पांडवों को प्मपूर्वक वहाँ भेज दे जरौर ऊच दिन सतकार से वहां रहते के लिये उनका प्रबन्धं करे । जव वेसो रहे होतो किसी से उस धर मँ आराग लगवादे । इससे हमारी अपक्रीतिं भी न होगी ्ौर हमारे शत्रु सहज मेँ ही मारे जांयगे । सोप भी मरेगा, लाठी भीन देगी । काम काकाम वनेगा श्रौर अपयशा से भी बचे रहेगे । यही सव सम सोच कर उसने ठेस धर वनवा कर कुन्ती सहित पांचो पांड्वों को धृतराष्ट् की सम्मति से वारणावत म भेज दिया । जघ पांडव उसमे थे तभी उस घर म आग लगवाने की वात वह सोच रहा था, छन्तु विदुर जी. कौ बुद्धिमानी से माता सहित पाँचो पांडव एक सुरंग के रास्ते से निकल भागे च्रौर स्वयं ही उस घर मँ आराग लगा गये । दैव- योग से एक भिखारिनि श्रपने पाचों पुत्रों सहित-उसमे जलग । इससे सबको विश्वास हो गया किं कुन्ती के सहित पाचों पांडव लाक्ञागुह् म जलकर मर गये । दुर्योधन को वदी प्रसन्नता हुई । ऊपर कै मनसे उसने बड़ा दुःख प्रकट क्रिया श्नौर लोक दिखवे क लिये पांडा का विधिपूवंक श्राद्ध-तर्पण भी करा दिया । सर्वत्र यही प्रसिद्ध होगया करि पांडव जल मरे। इधर पांडव अपनी माता छन्ती के सहित ज्यास जी की लम्मति. से एकचक्रा नाम की नगरी भँ छिपकर रहने लगे । वहां वे ब्राह्मण वेष म रहते थे श्रौर भिक्ता मोंगकर श्रमना निर्वाह करते! थे । वहीं पर उन पांचाल देश ॐ राजा दरुपद् की द्रौपदी नामकी कन्या के स्वय वर का समाचार मिला । द्रौपदी के च्रपूवं रूप लास्य की ख्याति सुनकर माता के सहित पांडव महाराज द्रपदं
्रीपदी स्वयंवर मे श्रपमानित ६३
की गसयानी मँ गये । राजा रपद ने एक लम्बे वस मै बहुत ऊ प्र घूमता दुरा यन्त्र दोग द्विया था । उस यन्न फे उपर एक एत्तिम मद्धलो गख दी शरी । उसके नीव एक बहुत विशाल सव्र करस से न नमनेवरालला धुप रख दिवा था श्रीर् यहं घोषणा करा दी शी फ्रि जो कों राजा इस धनुष पर प्रत्यंचं दाकर एम ल्यपो ब्रेथ फर्म मचयुली को इं देगा उसी के माय मेँ श्रपनी कन्यां का विवाह करा ।
दस प्रिता को सुन कर देश िदेश ॐ राजा, द्रषद् नगर भे श्रमे लगे। राजाध्रोकी भीडसे वद् नगर श्रत्यन्त ही शोभायमान दुश्रा । कणं को साथ लेकर दुर्योधन भी स्वय घर सभा में श्राया | मतरे राजा द छटवाट से सूत्र सजधज कर प प्रर ठे भरे । दूसरी श्रोर माधु महात्मा शरौर बेदह त्राण वे थे । पांडव वाद् के वेप मे श्रपते को पाये हुए बराह्मण भंढती मेंढे भरे! राजा द्रुपद की प्रतिज्ञा सुनकर एक-एक कर मव राजा उस लच्य के समीप श्राने सगे । बहुत पर नो वहु धनुष दी नदीं उठता था। जो प्रयतत करके धनुष उ्ठाभो लिते, वे उस पर डोरी नही चदा सकते थे। वहतो ने डोरी चदालीतो वाण दोडने मेँ श्रसमथं हुए । इस प्रकार सभी वड़े-वद़े राजा हार कर चुपचाप अपने अपने आस्नो पर जा वठे।
जव फणं ने देखा कोट भी लक्त्य मेद सीं कर सकता, तव वद् महापराक्रमशाली वीर सिह की भाँति अपने आसन से उठा । विना प्रयास ॐ दी उसने धुप फो उठा लिया श्रौर सज ही मे उसकी डोरी चदा दी । ज्योही कान तकं खींचकर बह वाण चोदने को तैयार हृता, स्योदी समा मेः चार शरोर कोलाहल मच गया । सवको विश्वास हो गंया कि त्श भर मँ कणं
€ ६४ महाभारत के प्राण महात्मा कणं
लकय को भेद् देगा । पांडवों के शुल पर निराशा -चा ` यद । इन भ दी दैवगति से द्रौपदी उठकर खडी हो गदे । उसने हाथ उठा कर कणं को रोकते हए काभ सूतपुत्र ॐ साथ विवाह नदीं फरूगी ॥ इतना ही सुनते, कणे बड़े लञ्जिप हुए । उन्दने धनुष को जँ से उठाया था, वहीं रख दिया | क्रोध के कारण उनका चेहरा लाल हो गया था; किन्तु सपने करो को चिपाते हये, उन्होने सूखी हँसी दसी। एक वीर उन्होने अपने पिता सूयं की शरोर देखा श्रौर वे चुपचाप श्रपने आसन पर जा वैटे। इसके पश्चात् श्रज्ञात वेप मे वैठे हए श्रजन शठे श्रौर लसय वेध करक द्रौपदी को अपने साथ ज्ञे गये! जो राजा मगड़ा करने को तैयार हए उन भीम ' की सद्ययता से श्रजत ते परास्त किया । ्ौपदी दारा करं का सभा म बढा अपभान हा । यद्यपि द्रौपदी का कहना एक प्रकार से ठीक ही था । राजपुत्री कों विवाह प्रिय राजपुत्र के दी साथ होना चादि कितु लच्य वेध मतो इसका कोई उल्लेख नदीं था । बदँ तो यही प्रतिज्ञा थी कि जो भी लकय को वेष देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाहे होगा । यदि उसमे चभ्रिय दी हो खर राजा ही हो तो अजुन के अज्ञात वेष मे उठने पर प्रौपदी को उनसे भी पूद्धना था--श्रापका गो क्या है {चाप किस देश के राज्मार हैँ ! आपका जन्म क्रिस जाति शरोर किस छल मे हआ है १ ये प्रश्न न स्वयः पवी ने पू न दुषद ने, द्रोपदी के माई धृषठयुनन े , तव क्णंकादही ईस व अपमान क्यो किया ! = आप कह सकते हं कि च्ररुन ते ब्राहमण वेष थे। ाह्मस॒ रो केत्नियसे र्ठ देत द । ब्राह्मण को चन्रिय कन्या तेने का
द्रौपदी स्वयंवर भँ पमानितं ६५
धिफार दै । यट उत्तर ठीक भी हो सक्ता है । मन्तु सव को सवान श्ाभीतो निश्चय नहीथाकि वह बामण ही है । लव्य वेध दे पर्चात् राजा दरपद् ने प्रपते पुत्र धृष्टयुप्न से रण शब्दो नें सदेह प्रकट किया धा | उन्दरनिलत्यवेध करने नान कनद १ इन बात का पता लगाने फे लिग् च्रपने पु सङ्शाथा--श्रा! द्रौपदी करो रगभूमि से जीत कर लेजाने दाला पुर्पकरौनदहै? पतान वेकल्तोग कँ लेणये ? जीतते घाना पुच्यकफोद नींव जाति का शृते या कर दमे बाला वैश्य नो नदीं द । मस हीन वणं फे पुरुप ते द्रौपदी को जीत कनो हमारे सिर पर पैर नदीं रखा ? सुगंधित माला स्मश्ान मतोनरीरफेकौ गर् £
इन पर्न से सण्ट पता चलता षै करिश्रजुन का भी कुल गोचर किसी को पता नदीं था! जवे कणं राजा थे चीर उपक्त्रिय रे दथा लद्यवेध में समर्थं थे तव न्दं कस से कम लच्य वधकं) तो श्थिकरार था दी । यदि कृलगोत्र की वात थीतो अजुनसे भी चह प्रश्न दोना चादिये था । श्रज्ञात-कुल-शील पुरुष के साथ द्रौपदी क्यो चल्ली गई १ श्रौरःद्रपद् ने भी मना क्यो नहीं किया ?
राजानो को यह् वात बुरी लगी । चिक्षेप कर कणं तो श्रत्यन्त ही कुपित हुए । बे सव राजाश्रों के श्रश्णी दोकर अजुन से लने चले । श्रु ने अपने चोखे वाणो से कणे का सासना किया श्रौर श्रपनी बीरता दिखाकर दयावली कणं को प्रसन्न किया । कं इस ब्राह्मस के ठेसे अदत पराक्रम को देखकर वड़े ही प्रसन्न हुए । वे गुणण्दी ये । उन्दोने श्चगुन के वाणो के कौशल से प्रसन्न होकर पूष्ा--दै वीराग्रगण्य १ आप मनुष्य त्तो मालुम पदृते नदीं । या तो श्राप मृत्िमान धुंद है, थाइन्द्
६६ महाभारत के शरण महात्मा कणे
बिष्णु रादि कोर बडे देवता दस्यो यदध म या तो इन्द्र मेरे सामने स्थर रह सकते है या इन्द्र पुत्र अर्जुन । इन दोनो को चोड कर संसार मै मेरे सामने कोई खड़ा दी नदीं रह् सकता । अजत ने दसते हुए कहा--न मै ध्व हन् इन्दं अथवा विष्ु, मै तो व्राह्मण कुमार द! अपने गुरु की मनि विधिवत सेवा करके ्रह्याक, इन्द्रा श्रादि समस्त चस प्राप्न किये ई । मै ्रापसे अब भी लड़ने को तैयार ट । श्राप वाण शोडिये। करं तो ब्राह्मण मक्त ये । ब्राह्मणों से वे वहत डरते थे । नह्य ॐ लिये वे सवसव त्याग करने को सदां तैयार रहते थे । वे अनजान मे भी कमी व्राह्मण का अपकार नदीं करते थे । मे जानते थे कि त्राहयतेज असह्य दै, उसका सामना कभी न करना चाहिये । यदह सोचकर वे युद्ध से हट गये । बराह्मण सम माकर उन्दने फिर अजुन से युद्ध नदीं किया। ` कणं दुर्योधन को लेकर हस्तिनापुर चक्ञे गये किन्तु सवके सामने द्रौपदी ने उसका अपमान किया, यह वात उन्हें असह्य जान पड़ी ] उन्होने श्रपने अपमान को वात किसी पर प्रकट नही की । किन्तु अज्ञात-कुल-शील व्यक्ति के खड़े होने पर द्रौपदी का चुपचाप खड़ा रहना चनौर संसार विजयी शूरवीर करे के उठते ही उसे सूत्रपुय कद कर विठा देना; यद् खच- मुच मे इदं खटकने वाली वातत थी । सब विधान हो एेसे बन गये । कणे को तो महाभारत का कारण बनना था । इसीलिये सवने पग.पग पर न्दे अपमानित किया । अपमान से ही मदुष्य कै `गुणो का प्रकाश होता है । अपमानं न होता तो आज कणं केवल संसार-विजयी शूरबीर - होते । अपमानः ने-उनका स्थान बहुत डवा कर | |
द्रोपदीनचीरहर्ण कृष्ण च जिष्णुः च हरि नर च, चरणाय विक्रोशति यासेन । ततस्तु घमोऽन्तसितो महातमा, समाकृणोद पै विविधैः तुवसतैः || # (स० प० ६८। ४६) संसार मे ठेसा अन्याय, एेसा ्रत्याचार, एेसा अधमं, इस भकार धम की अवदेलना, एेसी अ्रसभ्यता, एेसा अनाचार बहुत कम हु्रा होगा । श्रु भाई भी श्रपने घोर श्नु की कियो की लाज को श्रपनी लाज समता है । पुरुप श्रापसमे भले्ी „ मर कट ल, विन्तु रमणिरयो के अपमान को शतु भाद मी बहुत कम सहन कर सकते है । हा ! बह कैसा समय था { जिस सभा ` में वदे वृद बैठे हो, एसे ज्ञानी, निक्ञानी शखवेत्ता हो, वहं एक कुलवधू का ेसे अपमान दो छ्रौर सव लोग उसे चुपचाप देखते रह । धिक्षार है उन धर्मजञोको, उन वीरो की वीरताको, उनके दिव्य चसो को वार-वार धिक्षार है जो एक च्रवला के च्रमातुपिक अपमान को चुपचाप देखते र । कणं ऊ जीवन मे सव से अधिक करता, सव से बड़ी नीचता का काम यही हमा कि उसने द्रौपदौ के वखापहरण का समथन ही नदीं किया, रेसा करने क लिये दुःशासन को आज्ञा भी दी । मनुष्य कितना नीच, कितना शूर कितना कटोर शरीर कितना उपकार से परवश |
` दुः्शाएन् द्वारा द्रौपदी के वस्त सचे नाने प्र उसने श्रातं स्वर से कदा-“दे कृष्ण ! दे जिष्णो, हे हरे ! दे नरनारायण ! मेरी रका करो, मेरी स्ता करो ।» पेखा पुकार ।, उसी स्मय वसम घम" की रप भारण॒ करके विविध रग से युक देकर बने लगा ।.
६ महामार के प्राण महात्मा कर्णं
हो जाता दै, यह् वात करौ के उस समय के वचन सेख्षटद् जादी है । हा ! उसी समय प्रथ्वी फट क्यो नहीं गद { समल, कौरवो के उपर विजली क्यो नदीं गिरी १ च्रपनी पुत्रवधू क रेसी ददशा देखकर इन्द्र ने अपना अमोघ वज कौरवो के उपर कयो नहीं गिराया ! शंकर ने अपना तीसरा नेन क्या न खोला ? हया ! मलुष्य शैण्या के वशीभूत दोकर क्या नहीं कर सकता। , द्रौपदी ऊ साथ मगवान व्यास के कदने पर पावो पाण्डवो के - साथ धम-पर्वक विवाद हो गया । श्रयोनिजा ्रौपदौ ऋषियों की च्चा से पँय पाण्डवो की पतनी हु । विदुर श्रादि के सममाने से जर दूषद, इृष्णि-वंशीय राजां के दृवाव से रतरा ने पाण्डवो फो आधा राज्य वट दिया । धमराज ने इनद्रमस्थ मे अपनी राजधानी वनाद चौर दी अपने भाद्रयो के सहित धम-ूर्वैक राय करने लगे । अपने राज्य की दिनो दिन उन्नति देखकर जिसे सब राजा नहीं कर सकते, जो संसार कै सभी राजा को जीत कर की जा सकती है; उस राजसूय यज्ञ को करने की धमराज की इच्छा हदे । भगवान वासुदेवे की सहायता से उनकी सम्मति मीर छपा से धमराज ने, संसार ` विजयी राजसूय यज्ञ का आरम्भ किया । समस्तं देश के राजानं को युद्ध मे जीता गया । अपने चारो मायो ऊ, युजचल से तथा भगवान मधुसूदन क नीति-कौशल से सब देशो मे दिग्िजय की गई 1 समस्त राजश्नो से अपार घन प्राप हा ओर राज- सूय यज्ञ का श्रीगणेश `हृ्मा । कायः बहत. बड़ा था, अतः धमराज ने योग्यतानुसार स्र काम वाटं दिये थे। एक.एकं काये ॐ स्वधिकारी बना दिये ये । किसी प्रधान व्यक्तिको एक विभाग का स्वाधिकार दे दिया था।. कह अपने विभागमे जो
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द्रौपदी चीर हरण ६६
चाहे सो करे, जैसा प्रबन्ध करना चाहे करे। जो राजा भट लाये ये, उनसे भेट लेते का काम दुर्योधन को सौपा गया; क्योकि - धमराज के पच्चात् ये दी कुरुकुल मे शरेष्ठ थे। देश देशात के राजा, अनेक रल, बहुमूल्य-मूपर, सुन्दर-सन्दर सुवं, श्रपार धनराशि, असंसयो हाथी घोडे धमराज को यज्ञ मे भद देने को लाये थे । दुर्योधन भट लेते-लेते थक गया । किन्तु इतनी. सामग्री आईं कि रात्रि-दिन वरावर लुटाते रहने पर भी बह समाप्त नदी होती थी । धमराज के एसे प्रभाव को देखकर, इस प्रकार श्रसंख्य वदुमूल्य सामी को देखकर दुर्योधन मोचश्छा-सा रह गया । इतनी धनराशि उसने श्राजतक शपते जीवन मे कभी देखी दी नरी थी । इससे खाभाविक ही उसे पारुडनों के प्रति ईयं उतपन्न हद । वदी धूमधाम के साथ राजसुय यज्ञ समाप्त हृ्ना। सभी राजा धमराज से सम्मा- नित होकर अपने देशो को चले गये । दुर्योधन छु दिन इन्द्र प्रस्थ में श्रौर रंक गया । श्म्ि ते जव रजन से खांडव वन जलाने की ्राथनाकी थी, तव भगवान वासुदेव की सहायता से खांडव वन से अजुन ने श्यम्नि को तृप्त करिया था। उसी समय असुरो ऊँ विश्वकर्मा: मयाघुर को शअरज्लुन ने वचाया था । उसने उपकार स्वरूप श्री. कृष्ण की चाज्ञा से धमराज ॐ लिये एक ेसी अदभुत राजसभा ˆ चना दी थी किं जिसकी वराबर सुन्दर प्रथ्वी भर मेँ कोई समा ` नदीं थी। उसभ रतन श्नौर मणियां इस भकार लगाई गई थीं कि जल मेँ स्थल का शौर स्थल मे जल का भ्रम होता था। जवः र्योयन फो उसमे भ्रम हुता ज्र उसके गिरने पर सव जरो: से हसने लगे तव उसने अपना वड़ा अपमान सममा । उसी" दिनि से वैर भाव की--महामारत की निश्चित नीव पड़ गईं । <
१८६ महाभारत कै प्राण मदात्मा कण
शकुनी की सम्मति से धूतराष्ट् की ज्ञा लेकर पांडव को जए. के लिये बुलाया गया । दूतत सभा लगी । वङ़-वडे जु्ा- रियो का, ओर धूर्तो का जमघट लगा। सीधे सादे धमराज सव जानते थे फिर भी उनकी प्रतिज्ञा थी कि जुएट ॐ लिये श्रौर रण के लिये ज सुमे आह्वान करेण तो मँ मना नीं करूंगा । शुनी के कपट जाल से, श्रधमे के पांसो से धर्मराज का धीरः धीरे समस्त राजपाट, घन, सुच, वाहन इन धूर्ता ने जीत लिये । यँ तक कि श्रपने भाद्यों सहित धमराज श्रपते को भी हार् गये ! तव शनी के कहने पर शरौर उसके ओर देने पर ध्मराजने द्रौपदी कोभी दाव पर लगा दिया ओर कपट से शङ्खली ने पासे डालकर उस दाव को भी जीत लिया । तव तो धम राज बड़ संकट भे पड़े । कौरवों की प्रसन्नता का ठिकाना नदीं रहा । सबके सामने दुर्योधन ने दुःशासन को श्राज्ञा दी कि तुम द्रौपदी को यँ समा में बुला सान्न ।
पिले सूत-युत्र को भेजा । द्रौपदी ने कहला भेजा- भ समा में आने योग्य नदीं हू, रजस्वला ई । इस संमय मै नहीं चा सरकेती । किन्तु वे दुष्ट तो उसे अपमानित करने प्र उताह थे । दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी-तुम श्रभी जाकर द्रौपदी को पकड़ लानो । वह जैसी भी दशा महो उसे समा स ले आञ्नो। उसे जो भी कहना हो यदः आकर सब के सामने फे ।' .
दष्ट दुःशासन अपने माई की आज्ञा पाकर भीतर रनिबास भ गया जदं द्रौपदी अलग ठदरी. हदे थी । उसने लाते ही वयग के स्वर मे कहा--श्ृष्णे ! छव तुम पांडव कौ पत्ती नहीं रदी, अव तुम हम लोगो की दासी बन गड हो । चलो मदारा दुर्योधन तुष्टं समा भें बुला रहे है {
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द्रौपदी चीर य _ १०१
द्रौपदी ने क-- "देखो, दस समय मै सभा म जाने योग्य सीद, धर्मराज के मे श्रधीन ह| जो च्रापत्ति उन पर श्रावेगी वदी मुभ पर । मै धमाल से प्रथक् नदी ह ॥
क्रोध फे कारण लाल-लाल श्रखिं करफे च्रौर द्रौपदी को भयभीत फरता द्रा गरज कर दुः्तासन वोल्ला-वहुत चकयक फरनेकाकामनहीद | सीधेसेयातो मेरे साथ चली चल्लो नदी तौ फिर शुभे दूसरा मागं रहण करना पडेगा ।'
उसकी भयद्रुर चेष्टा से पांचाली ने समम लिया कि श्रव यद दुष्ट मानया नीं ! यद् सोचकर वह् अपनी रक्ता के लिये श्रपनी सान्ति गोधारी के मलो की शरोर भागी । दुःशासन भी उसके पीठ मागा । भागने से पांचाली का अंचल सिर से नीचै गिर गया था । उसके कले, लहलदीरी, षुंघराले ओर लम्बे-लम्बे वाल सुन गये । ः्शासन मे श्रगे बटृकर जोर से उन बालों फो पकड़ लिया श्रोर घसीटता, इरा बोला-- श्व थता कौन तेरी रक्ता करेगा १ भाग, कँ भाग कर जाती ई ¢
द्रौपदी के दोनों नेत्र से श्रवु कीटो धायर्पँ बह रदींथी। वह् रो-ते कर चिललाप कर रदी थी । हाय ! पांच पांड्वो की पत्नी की ्राज ेसी दुद॑शा हो रदी है ।
दुःशासन जव जोय से वाल पकड़ कर धसीटता हा द्रौपदी
, कोसभाकीश्रोरज्ञेजा रहा था वेव धीरे से द्रौपदी ने कदा-
“५ ष्ट ! राकस ! पनी कुल वधुर्रो की तो चोर-डद्रभीरक्त
करते हैः । पापी श्रौर हत्यारे पुरुष भी अपने घर की सियो को दस तरह श्रपभानित नदीं करते । देख, इस समय मँ रजस्वला दू, एकवल्ला हं । फेसी दशा में तृ सुमे होड दे । सव के सामने सभामेनले चल) यह तू घोर पापकररहाहै।'
[1
४
१०२ महाभारत ॐ प्राण मदात्मा कण
दु्शासन ने कदा--भल्े ्ादमी पलिया की मर्यादा रखते हँ । तू हमारी दासी है । दासी को कोई लज्जा नदी;
स्वामी प्रत्येक दशा मे बुला सकेता है । तू अव हमारी दासी है । जसा चा्ेगे हम वैसा तेरे साथ व्यवहार करेगे 1 यह कहते हुए रोती हु द्रुपद की कन्या, धृष्टयुम्न की वदिन, पाड की पुतर.वधू श्नीर पांडवों की प्यारी पल्ली छो वह दुष्ट सब के सामने खींच लाया
द्रौपदी की पेसी दयनीय दशा देखकर दर्शकों के दग से श्रधारा वह् चली । दुर्योधन, दुःशासन, शकुनो श्रौर कर्णं को छोडकर सभी दुखी हुए । सव ने लज्जा फे कारण धे मीच तीं रौर सिर नीचे कर लिये ।
द्रौपदी ने .रोते-रोते समस्त सभासद से एक भ्न पूष्वा--सभास्द ! जब धमराज अपने को पिले ही हार गये थे तव उनका युमे दाब भ लगाना धमे-संगत था या नदीं । पिते सुमे हार कर तव चे छ्रपने को दोपि प्र लगाते तव तो ठीके दी था। जब उन्दनि पित्ते अपमे को हारा तव उनको मुभे दाब पर क्तगाने का धम-पूरवंक अधिकार रहा या नहीं † मेरे इस प्रशन का उत्तर दीजिये
समा भे सन्नाटा छा गया, सभी अवाक् ये । पितामह मीप्म ने सन्देह के साथ कहा शै भी इसका टीक-ढीक उत्तर नदीं दे सकता ॥ द्रौपदी रो रही थी नौर सवक ओर् कातर दृष्टि से देख रही थी । सभा मे बैठे हुए अपने उवसुर -धृतराष्ट् , भीष्म चौर द्रोाचायः तथा शेपाचाय की ओर बह बार-बार निहारती थी कि इनमे से कोरी रका कर! उसके पति वीर पांडव सिर नीचा
इष उदास भन से सुपचाप वैरे थे। वे मारे लज्जा ङे
द्रौपदी चीर हरण १०२
सिर भी उपर की रोर नदीं उढाते थे, द्रौपदी की दृष्टि से दृष्ट भी नदीं मिलाते ये । द्रौपदी बिलख रदी थी, किन्तु उसका रोना-थोना, चीखना-चिल्लाना, बिलखना सब श्ररुयरोदन के समान था । सव को शांत शरोर चुप बैठा देखकर धृतराष्ट्र का एकं पुत्र विकणे उठकर खड़ा हा श्रौर उसने गंभीरता के स्वर मे सव को सम्बोधित करते हए कदा-सभासदौ ! श्राप सब धमे को जानने वलि दै फिर अधमं का आचरण क्यो कर रहे है! जो समासदं समामे बैठकर भी मय, संकोच, लोभ या पक्तपात के कारण सत्य वातं को प्रकट नदी करता बह नरकगामी होता है। ष्ांचाली पुकार पुकार कर प्राथेना कर रदी है। भाप सब कानों भे तैल डाले चुपच।प उसकी वातो को सह रे । मेरे मत से ९ दरौपदी नहीं जीती गई ! दूत मे अनभिज्ञ महाराज धमराज को न धूर्तो ने धोखा दिया है । पत्नी को कोई भी दव पर नहीं लगाता.फिर जव पिते धमेराज अते को हार गये तब वे द्रौपदी को दांव पर लगा ही कैसे सकते है ! इसलिये मेरे विचार से द्रौपदी दासी नदीं है । फिर जैसा व्यवहार उस कुलवधू के साथ हो रहा है,यह तो सथा अनुचित है, घोर पाप है,महा नीचता है । एेसा व्यवहार अनाय श्रौ दुष्ट मी नहीं करते। विकर्णं ॐ देसा कह चुकने पर क्रोध के साथ करं ने दुर्योधन का पत्त लेकर उसे प्रसन्न करने के लिये यह कठोर वचन कटने आरम् किये--“विकण ! तुम अभी वे हो, तुममें बुद्धि नही, १ सहरी मति श्रभी की दै । तुमने शुरुजनों का संग नदीं किया, धरम ओर नीति की बातों से तुम अनभिज्ञ दो । दुर्दं धमे के रहस्य का क्या पता ! जव धमराज जए म श्रपना सवेस्व हार गए तब क्या द्रौपदी स्वस्व से बाहर है चाहे जैसी दशा हो पत्सी पति से कभी प्रथक् नीं हयती। ज्ब पांचा पांडव हार गये,
१०४ महाभारत कै प्राण महात्मा कणं
दास वन गये तव द्रौपदी तो सतः दही दासी यनी । धमस दो या श्रमे से जव सव के सामने युथिष्ठरने द्रौपदीको दोव पर् लगाया श्रौर उनके चारो भार्यां ने मौन रहकर उनकी स्स वात का श्रलुमोद्न किया, इसमे आपत्ति नदीं की तो द्रौपदी कसे हारी हृदे नदीं मानी जा सकती । तुम जो वार वार “एक वखा- एक वसा कहकर अधमे प्रधमं की रट लगा रहे हो सो यह् कुल बधु्रों के लिये ग्यवस्था दै । जिसका एक पति हो उसे पतिव्रता कहते है; जिसके शरनेक पति दति ह बह कुलटा कहलारी है । द्रौपदी के पोच पति द इससे बह पतित्रता तो है नहीफिर हमने उसे जीत् लिया हैवह हमारी दासी है 1 रतः हम जैसा चार्हेगे वैसा बतोव् करेगे । पांडव दुर्योधन के गरधीन ह;उनके दास है । कहता दुःशासन ! तुम इन पांड्या क चनौर द्रौपदी के वरो को मी दधीन लो कणं ने ये करण-पटु ऋरंतापूणं वचन कहकर कौरवो को मरसनन करना चाहा । भरी समा मे पतिन्रता पांचाली ऊँ प्रति बचन कना बहुत ही अलुचित ये । दुःशासन तो उनकी लल्न लेने को उतारू ही था । पांडव धर्म-पाश मे ववि इए थे । कणे की वात समा होते ही पाड ने अपते बहुमूल्य सोने के काम से जड़ हए बहुमूल्य रेशमी उत्तरीय उतार कर रख धियि उस समय पांडा कोः नम्र देखकर सभी समा के लोग चीरः मारकर रोने लगे । उस समय का दृश्य वड़ा दी करुणाजलयं था । कण के उत्सादितकरने पर दुःशासन ने आगो बदकर- र्त इ पदो का बखपकड किया । भयभीत समी की मोंति पांचातं मपने अरगोमे छिपी सी जाती थी । लज्या के कारण उसके सः अग संचित शो. गये । उेले के परते की भांति उसका शरी स्वर कप रहा था। दुःशासनं जोर से उसकी साड़ीवं
द्रोपदी चीर हरण १०५
खाचने लगा । सरे सभासद सदम गये । भीष्म, दोस, कृषश्नौर ृतगष्ट्र ऊतभ् दोने पर भी इस श्रन्याय फो श्रपनी श्रध , देस्तरेष्ट व्रिद्ुर् जी ने इसका प्रतिवाद फिया । किन्तु उनकी त्रान सुनता कोनद्। द्रौपदी ने अपने पचो परतियोंकी चछर देखा। दे भीमानय। चायो श्नोर से निराभ्रित होने पर उतने भगवान मधुसुदन फो पुकारा । जव उसने देखा -सभा भँ सभी मेरे अपमान को चुपचाप द्य रे ह प्रर यद् दुःशासन श्व क्षण भरम ही ममे वख- हीने नग्न करना चाहता ह, तेव उसने वड़े करूणा के स्वरम पुक्रारा--दि नाथ ! हे दीनबन्धो ! हे श्रश्तरण-शरण । दे द्रारिका- चामी! ह श्रनाथरत्तक! हे कृषासागर ! दे भक्तवत्सल ! ह करणानिधान ! द द़ीन-वत्सल ! हे पतितपावन ! भरी समा में टु दुःशासन भ्रमे नप्र करना चाहता ह । अ्रापके सिवा मेगा कदं रत्तक नही, कोद सदायक नहीं । इस समय भुम दीना हीना श्रनन्य शरणा की श्राकर श्राप रक्ताकरं ॥ करुण स्वरमं कृष्णको पुकरारते दीभ्रभुने वक्ञावतार धारण क्रिया । दुःशासन जितना ही वल खीचता जाता था, उतना ही नया वेख निकलता जाता था । चश्च तो श्रन॑त हो गया धा । बहुत से वर्ना के ठेर लग गए किन्तु द्रौपदी का वह चीर कम नीं हृश्रा। वह वदृता ही गया । श्च॑त म दुःशासन हार “ गया! द्रौपदी की लाज वचं गईं । । ^दुस्सासन को यल धयो, धट्यो न गन मर चीरः"
व
दुर्योधन का वैष्णव यज्ञ अर कणं की अजु न-दधकी प्रतिज्ञ
तमवरकीत् तदा कणं; शृणुमे गनङ् जर । पादौ न धावये तावद् यावन्न निहतोऽंनः ॥% (० प० २५०१६)
सवेना का कारण देष है । दूस के ्रभ्युदय से हृद्य मे जो दषा उन्न होती दै, उससे कलह होती दै रौर ४ सवेनाशका कारण है । कलह कलियुग का स्वरूप होता दे दुर्योधन तो कलियुग का श्चवतार ही था । यदि पांडव के अभ्युदय को यह अपने ही इल का ्रम्युद्य समता, भाई की तरह स्नेह से रहता तो महाभारत का श्री गरेश दी क्यों होता १ पांडव के यज्ञ मे, उनके महान् देशय को देखकर उसे इतनी भधिक जलन हृदे, कि उसके कारण उसने मोजन-शयन सब छोड़ दिया । उसकी हार्दिक इच्छा थी कि किसी तरह पांडव दुखी हों, उनका अपमान हो । मेरा फेय इनसे भी वद्- करहो च्नीरये दरिद्र की तरह भीख मांगते फिरै। इसी के लिये उसने शङ्कुनी की सहायता से चूत समा की श्रौर कपट के जूए मे पाडर्वो का सवख दरण कर लिया । यही नदीं, उस दुष्ट ने सवके सामने पतिव्रता द्रौपदी का भी घोर अपमान क्रिया । इसे विवखा बनाने की नीच चौर धृणित चेष्टा फी । बिन्तु जिसके ,
दुयोधन को प्रसन्न करते हृए कण" ने क्हा--"दे रानेद्र। मै
परतिन्ञा करतां कि जव तक युद्ध मे श्रचुन को न मारपा, तव तक किसी दूसरे से पर न धुलाऊगा ।»
वैष्णव यज्ञ शौर कए अरसुन-बध की प्रतिज्ञा १०७
रक्तक सर्वैर ह, चिन्ह उन मधुसूदन का श्रय दै, उनका अनिष्ट कौन कर सकता है १ दुस्सासन को वल घघ्यो, घश्यो न गजे भर चीर' द्रौपदी का चीर श्रद्वय चौर श्ननन्त हो गया । तव धृतराष्टू के वरदान से द्रौपदी अपने पतियों सित दासता से शुक हो गद श्रौर धृतराष्ट् ने उनका धन राज्य लौरा कर इन्दरभस्थ को चिदा कर दिया । भावी को कौन भेट सकता है । कपटी शङ्कनी की सहायता से पांडव रास्ते से फिर लौटाये गये चौर अवं के इस शते पर जुरा हृश्मा कि “जो हारेगा उसे १२ वषे बनवास श्रौर एक वपं श्रज्ञातवास करना होगा । श्रज्ञा्तवाच् मँ यदि पता लग गमा तो फिर भी १९ षष वनवास, एक वपं अ्ञातवास होगा । यह क्रम इसी तरह च्ञेगा धमराज ने इसे स्वीकार किया । जु हुमा नौर शकुनी के कपट से पाड्वो की हार ह । कुन्ती को विदुर ॐ पास छोडकर द्रौपदी सदित पांडव १२ वषं वनवास करने चले गये श्रौर बन मे ब्राह्मणों के सहित श्रतिथिं सत्कार श्रौर तपस्या करने लगे । धर्मराज को बिश्वास हो गयां कि लडाई अवश्य होगी । दुर्योधन भी जनता था फि युद्ध का होना अरवश्यम्भावी दे । इसी- लिये बह भीष्म, द्रोण, छप, अश्वत्थामा, चथा मन्त्री च्ीर सेना- पत्तियों को वहत खा भन देकर सदा संतुष्ट रखता था । बह पनी प्रजा के साथ बड़ ऋच्छा व्यवहार केरता था। , उसकी एकमात्र इच्छा थी, पांडव को भपमानिव, पद् दलित श्रौर लब्डित करना । उन्दः दुखी +देखने मे ऽसे परम सुख मिलता था । धर्मराज भी जानते थे कि यदि युद्ध होगा तो ये सव महाराथी दुर्योषन ऋ दी पा क्षेमे । उन्हें भीष्म, द्रोण छप, अग्वत्थामा इनका उतना
४ १०८ - महाभारत के प्राण महात्मा कणे
भय नहीं था । सवसे अधिकवे कणं से ढरते ये! वे जानते े कि पितामह वृह है, उनके लिये हम शौर कौरव समान है। बे युद्ध तो करेगे किन्तु कोभित दोकर मारे माण न लगे ॥ इसी तरह उनका प्रोणाचायः,. कृपाचायं आर श्र त्थामा के उपर विश्वास था। किन्तु वे सममते थे किकणं वड़ा शूरवीर दै, बह अपने वचनां का वदा पक्का है। जो भ्रतिज्ञा एक वार कर लेगा उसे प्राण रहते तक्र निभावेगा। सूयं चन्द्रमा अपत्ना नियम छो दे, किन्तु कण अपनी परतिज्ञा से कभी विचलित न होगा । इसीलिये उन्होने केवल कणं को दी हराने के निमित्त अपने प्यारे भाई रजन फो सगं मे इन्द्र के पास दिव्या सीखने के लिये भेजा । वे रात्रि-दिन कणे की वीरता का स्मरण करके लम्बी-लम्वी सले भरा करते थे । देवराज इन्द्र को भी उनका पदापात था। उन्दने लोमशन्छपि से संदेश भेजा कि धर्मराज घडावें नही, जिस कर के लिये .बे इतने चितित रहते है, जिस डर से पे सदा उरते रहते है, मँ अपने छलसे उनके उस रको दूर कर दंगा । इतना आश्वासन दिलाने पर भी धम राज का खटका दूर नहीं हुआ । बे कस की वीरता कोस्मरण करके सदा भयभीत श्नौर चितित हीवने रहते थे। ` ५ वषे खगे मे समस्त दिव्याख् प्राप्त करके शौर अपने अदुभुत पराक्रम से दैत्यों को परास्त करके तथा श्रजेय निवात- कवचो को मारकर देवताओं से सम्मानित होकर असन अपने ; म्यो के पास प्थ्वी पर लौट आये । धमराज द्रौपदी श्नौर {भाया सहित दवैतवन मे आकर निवास करने लगे ] सूय की "उपासना करके उन्होने एक ेसी बटलोईै.सूयः की छपा से पराप ;करली ी-कि जव् तकर द्रौपदी भोजन न करे तव तक उसमे चे इ्चालद्रूल् जितना चाहे उतने भोज्य पदार्थं निकलते रहे ! उस
येष्णव यत्न ओर कं की छरुन-वध की श्रतिक्ञा १०६
दिच्यस्थाली के दी प्रभाव सेवन में भी धर्मराज श्रसंख्य बह्म च्रौर् स्नातको को भोजन करति थे । इधर पांडव को टत चन मे श्राया सुनकर, दुर्योधन क इन्छा इद कि भ्म उनके सामने अपना श्रतुक्त रैशर्य दिखा ' उन्दं ललित कर । श्राज मेँ पृथ्वी पर चक्रवर्ती राजा ह । लाखों राजा महाराजा मेरे चरणं मे श्रना किरीदयुक्त मस्तक नवाते दं । पांडव वल्कल वख पदिने धूप दोह, गर्मी-बपां सहन करते हुए क बन से दृस्तरे बनमें धूम रह है । जवम च्रपार् यभव के साथ सम्रादकफे वेशम उन्हे भिन्ुक श्नौर वनवासियों कौ भोंति देखूगा तव मुके इन्द्रोक पाने पर भी जितनी प्रसन्नतान दोती उतनी उस समय पांडर्वो की दीन दृशा देखकर होगी ॥ यह् सोचकर उसमे कण, दुःशासन शङ्कनी श्रादरिं से सलाह करके धृतराष्ट्र से दते बन मे जाने की आज्ञा मोगी । पहले तो धृतराष्ट्र ने इनका ज्र अमिप्राय समम कर - सम्मति नहीं दी, किन्तु पीट श्रपनी गौरवो की गणना दि का वहाना वत्ताकर अनेक तरद् की वाते वनाकर् धृतराष्ट्र से दैत-घन में जाते की प्रज्ञाल ली। । दुर्योधन श्रयने, अतुल रेवयं का प्रदशेन करने कै लिये व्डे ठाट-वाट ओर बहुमूल्य वस्राभूषण तथा विविध प्रकार के मद्य-मोज्य, लेद्य-चोष्य आदि , ओञ्य पदार्था को लेकर द्वैत वनम परहुवा । वदाँ उसने विविध प्रकार के भोग भोगे, गौरो की गणना की, ` कणं दुम्शासन आदि के साथ शिकार खेला श्रौर विविष प्रकार कै, नाचमीत रौर खेल-तमाशो का आयोजन कराया । श्त में दैत बनके सरोवर के किनारे ज्यं पांडव ठरे हुए ये, हय उसने विहार करमे ऊँ लिये विविध प्रकार कै भवन वृनाते
१० महाभारत के प्राण मदात्मा कणं
डी शर्वा दी । दैवयोग से वदँ चित्ररथ गंधव शरपने साथिया सहित विदार कर रदा था । उसने दुर्योधन के सेवर्को को व ञे मार भगाया । इस प्र सेना सदत दुर्योधन ने गंधव, युद्ध करना आरम्भ कर दिया । गेथवे उपदेव थे । वे भति मति षी भाया लानते ये. श्राकाश भेंगुदध कसते थे। वे श्ण भर भँ प्रकट हो जते, छण मे श्रसंख्यों रूम धार कर हेते, ए मे धिप जाति। कौरव सेना गंधर्वो का साममा न कर सकी । बह डर कर युद्ध भूमि से माग गई ! किन्तु महावीर कणं युद्ध म इदे दी रहे । वे पते चोते वारो से गन्धर्वौ करा नाश करते लगे । तव् सद लाखो धवे एक साथ ही कण के अपर दरूट पड़ । अदे य, ग॑घवं असंख्य ये । सव ने मिलकर कण के रथ कौ एक एक कील को तो डाला । किसी ने उनके सारथी को सार डाला; किसी ने घो को, किसी ने ध्वजा गिरा दी । रथहीन करं तलवार लेकर बड़ी बीरता से विक केरथ मं वैठकर थोड़ी , दरङकियेयुद्धभूमि से ट गये ।कणं क दटते दी नरवर पाकर गंधर्वा न दुर्योधन, शती आदि को बाँध लिया चौर उन्दं घसी- ठते हये आकाश मागे से ते चले । बहूत सी. स्िर्यो कोभी गथवनि बाघ लिया । दुर्योधन क दूतो ने रोते-रते य सव दाल कर धर्मराज युधिष्ठिर से कहा । धमराज उस समय एक विशेष दीका भं ये । उन्होने सममा माकर अपने चारो मावो को दुर्योधनादि को चुडाने के लिये भेजा । भीमसेन ने कुच आना- कानी की तव धमराज ने कहा हम भाद माई आपस मे मल दी लद । ्रापस की लदा मे वे १०० हम ५ द; किन्तु यदि कोद तीसरा तदेगा तो हस १०५ माह मिलकर उसका सामना करेगे ! उनकी च्रौर हमारी प्रतिष्ठा दौ थोडे ही है । चारो
प्व यक्ष श्मौर एणं फी असन. फी प्रतिज्ञा १११
पावो ने धरी देर गंधर्वो से युद्ध करिया । फिर गंधर्वो के राजा चिघ्नरथ फी श्रजुन से भेट दो गई । वह ्रजुन का पुराना मित्र भा। चित्ररथ को सममा बुमाकर दर्योथन, उसके साथियों तया पिन्यो को गंधर्वो से चुडा दिया । गंधर्वो से पांडधों दारा छुदाय जाने प्र श्रत्यन्ते ललित होकर दुर्योधन श्रात्मघात करने फा निश्चय करये चला । रास्ते मे ऽसकी भेट कणं से हृद । कर्ण को दसने श्रपना सव वृत्तान्त वर्ताकर कहा-मित्र श्रय मे पेना अपमान स्कर कभी जीमित न र्गा । निश्वय ही श्रपने प्राणां का स्याग करगा । यह् ककर श्रपने छदे भाई को राजका समभा कर् उसे गत्ते लगाकर बह श्रनशनसे मरने का निश्चय करके कुशासन पर यैठ गया । कणे, शङ्कनी दुःशासन सभी ने उसे हर तरह समफाया। जव किसी के सम- फ़ामे पर भी वह न माना तो सभी उस्फे श्रासपास वैठकर रोने लगे श्रौर उसके साथ ही प्राण त्याग करने को बे भी निश्चयकरके यैठ गये । दानो ने जव देखा कि दुर्योधन मर जायगा श्रौर नच युद्ध होगा नो हभारा पक्त निवल पडजायगा । यद सोचकर मंत्रघ्रन से यज्ञ करके कृत्या द्वार दुर्योधन को दानव लोक मेँ बुलाया 1 दानवे ने उसे हर तरद समाया श्रीर फा (तुम युद्ध मे चिन्ता मत कते । करोड लाखों दैत्य, दानव, रा्तस राजार््ो ॐ वेप में प्रध्वी पर उत्यन्न्टो चुके ई । वे सव तुम्हारा साथ देंगे मीप्म, कर, कृष रादि के शरीरो मे मी म भुस जागे 1 इसी से वे स्नेह दोडकर पने सगे सम्बन्धिरयो को मारे । ह, के शरीर मे भी नरकादुर की श्रात्मा धु जायगी, इससे वह जान की कु भी चिन्ता न करके चर्जन से लगे । किन्तु इन्द्र हलकर उनके कवच छुन्डल की धात मेँ लगे हँ । तुम श्रानन्द् से जादो, वुम्दारा बल वहत है । जैसे देवतार््रो को युधिष्ठिर
९२ महाभारत ॐ प्रण सदहात्मा कणं
का सहारा है, वसेह हमे तदार दै दुम्हार कल्याण होगा। शरनशन करके मरते का विचार त्याग दो † दानो ने एसा सममा कर कृत्या द्वारा दुर्योधन को फिर वदी पुव दिया । _ मरातःकाल किर करौ ने भांति-माँति कौ विनती की । दुर्योधन के सम्मुख शख चकर , प्रतिज्ञा की कि. शुद्ध मे जीते जी अन को सारूगा । मै पूरी शक्ति से उससे लदगा ” कणं की एेसो प्रतिज्ञा सुनकर चनौर दानवो की बातो का स्मरण करके दुर्योधन
श्रनशन का विचार दोडकर पने साथी शओरौर सेना सहित हस्तिनापुर म आगया 1
सव समाचार सुनकर भीष्म ने कणं सहित दुर्योधन को बुलाकर कणं के सामने हौ कहा -षिटा, तुम शुर वृदे की बातत ~ मानते नहीं । तुम इस नीच सूतपुत्र कणे का साथ छोड दो । हत्या की जड़ यदी अधम है | यह अपने को वडा शूरवीर धमार श्रौर दानी समभरता है, किन्तु यह पांडवों के पसंग के बराधर मी नदीं है । यह् उरपोक भला अजुन का सामना क्या कर सकता हे १ यह् युद्ध छोडकर कायरो का तरह युद्धभूमि से ट गया चीर गंधवे तुम्हं बोँध ले गये ! श्रव तुम इस मित्रघाती अछ्ुलीन से क्या युद्ध की च्राशा कर सकते हो १ इसमे तनिक
भी चल नहीं यह वाणी काही शूर॒ है। बकता बहुत दै, कत्तव्य कुटु भी नदीं दिखाता ।
` -दर्याधनने पित्तामह् की वात पर तनिक म ध्यान नहीं दिया । बह द्पेक्ता का भाव दिखाता हता कणं सदित वहो से चला च्या । कणे को यद् बात भाले की वरह चुभ गई । उसने दरयाधन से कहा--'महाराज ! ये पितामह बडे पद्पाती है । चन्न ठम्दारा खाते द रोर वङ्ई पांडव की करते । ये भुमे कायर,
चैष्णव यज्ञ श्नौर कणं की -अलुन-वथ की प्रतिज्ञा ११९
उरपोक श्रौर मित्नधाती वताते द । मेँ भरतिज्ञाकरताहं सिः समस्त पृथ्वी के राजान्नं को हराकर दिग्विजय मँ सम्पणं पृथ्वीं को जीत कर श्रापको समपित कर दुगा । पांडवों मे तो मिलकर प्रभ्वी को जीता था। मेँ त्रकेला ही ्नपने बाहुवल्त से समस्त पृथ्वी के राजा को करद् अरर श्रधीनस्थ वनाडगा । ज्राप मेरा बल, पुरुपाथे श्रौर शख कोशल देसे यदं सुनकर दुर्यो- धन मारे प्रसन्नता ॐ उद्यल पड़ा। उसने बार वार कणे को द्य से लेगाया । प्रेम के कारण उसकी ओघो म ओषु मर आये । गद्गदू कंठ से उसने कहा--"भित्र मेँ धन्य ह ।